Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 3
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 431
________________ बगल के आसन पर लक्ष्मीदेवी बैठ गयी। शान्तलदेवी ने कहा, "चट्टला, रानीजी को भी पान बना दो।" "मैं पान खा चुकी हूँ, और नहीं चाहिए।" लक्ष्मीदेवी ने कहा। "सन्निधान ने रानी की अभिलाषा बतायी। वहीं सोच रहे थे कि क्या करना चाहिए। इतने में...'' "मैं ही आ गयी । वास्तव में सन्निधान से पहले ही मैं इस सम्बन्ध में कहना चाहती थी।" "चाहे कोई कहे। बात तो एक ही है न! तुम्हारी यह अभिलाषा सहज ही है। मेरी सहानुभूति है। उन्हें यहाँ बुलवाना कई कारणों से सम्भव नहीं, यह राय थी। परन्तु उत्सव के समय उनके आने के विषय में कोई आपत्ति नहीं रहेगी। किसी को यादवपुरी भेजकर आचार्यजी से यह निवेदन करने की व्यवस्था करेंगे कि एक पखवारे तक किसी को यादवपुरी में रखें और तुम्हारे पिता को यहाँ भेज दें। उनके यहाँ आने पर नौकरी न रहे तो भी बेटी के साथ रहें। उनकी राय हो तो उनके लिए क्या करना होगा, इस पर विचार करेंगे। ठीक है न?" इस निर्णय को सुनने के बाद जो कहना चाहती थी, वह सब कहने के लिए अवसर ही नहीं रहा। जो भी हो, उस अवसर पर पिता के आने की बात तो तय रही न? यही बहुत है। यहीं एक समाधान रहा। मुस्कुराती हुई उसने अपनी सम्मति दी। फिर स्थपति की बात उठी। शान्तलदेवी ने ही लक्ष्मीदेवी से सीधे पूछ लिया, "कला को रूपित करते समय और कला का आस्वादन करते समय तन्मयता की आवश्यकता है, यह बात तुम्हें स्पष्ट हुई ?" "तन्मयता क्या होती है, उसका अनुभव मुझे केवल कल ही हुआ। हमारे चारों ओर होनेवाली बातों और क्रियाओं की ओर ध्यान ही नहीं रहता, मन केवल एक ही जगह केन्द्रित हो जाता है। कल का अनुभव अमूल्य और अद्भुत है।" "जब ऐसी भावना मन में उत्पन्न होती है, तभी कला के वास्तविक स्वरूप का बोध होता है। उनकी वह कला-कल्पना तुम्हें अच्छी लगी न?" "यों ही चित्र देखती तो पता नहीं क्या और कैसा लगता। उन्होंने जो विवरण दिया, उसे सुनकर उसके सौन्दर्य की छाप अच्छी तरह मेरे मन पर पड़ी। वे व्याख्या में भी निष्णात हैं। जो कहते हैं, उसे अच्छी तरह मन में बैठा देते हैं।" "ये वेद-वेदांगों में पारंगत, सर्वशास्त्र सम्पन्न, सर्वशिल्प निष्णात, परमज्ञानी पण्डित हैं।" "देखने पर तो ऐसे नहीं लगते।" "वैसे ही जैसे भरी गगरी छलकती नहीं। अर्ध कुम्भ हो छलकता है। ऐसा पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन ::.433

Loading...

Page Navigation
1 ... 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483