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"सबकी कामनाओं को पूर्ण करने का दिन। "
" इसे कौन मना करेगा ?"
"देवी, आज मन एक किसी विशिष्ट पूर्वावस्था की ओर गया है। उस समय जिस सुख का अनुभव किया, उस सारे सुख को यह अनुभव करना चाहता हैं। तब हम राजा नहीं थे। हम केवल पति पत्नी ही रहे। उस समय आकांक्षा यही रही कि हम दाम्पत्य का आदर्श प्रस्तुत करें। इसलिए आज हमारी अभिलाषा को पूरा करने का दायित्व देवी पर है।"
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'आपकी कामना काम वासना से प्रेरित हो तो आज कामदहन है। ऐसी कामना भला कैसे पूर्ण होगी ? यदि सन्निधान की कामना वासना - रहित हो तो मेरा सम्पूर्ण सहयोग है।"
" देखि ! कामना में पूर्ण सिद्धि पाना हो तो उसमें वासना का भी अंश रहेगा
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" परन्तु ऐसी कामना अभी इस रनिवास में सम्भव नहीं। क्या सन्निधान मुझे व्रत का पालन करने देना उचित नहीं समझते ?"
"मैंने तो अपने हृदय की बात कह दी है।"
"मैंने भी उन्मुक्त हृदय से उत्तर दिया है। मेरे व्रत को सन्निधान उदारता से पूरा होने देंगे, यही मेरा विश्वास है।"
"यह तो संयमी द्वारा असंयमियों से कहने को-सी बात है।"
"यदि सन्निधान ने संयम से बरतना नहीं सीखा हो तो उपदेश देने के अधिकार को ही खोना पड़ेगा। संयम न चाहनेवाली, सदा सुख चाहनेवाली छोटी रानी जब हैं, तो इच्छाओं को पूरा करने के लिए चिन्ता ही क्यों ?"
"देवी से कैसे कहूँ ? उसमें यौवन है। उसके अनुरूप ताप भी; परन्तु... "
יי?
" परन्तु क्या...
"जब तृप्ति न मिले, तब... "
"उसे पाने की बुद्धिमत्ता, आकांक्षा रखनेवाले की है ।"
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'वह कठिनाई कही नहीं जा सकती।"
"रहनी बम्मलदेवी और राजलदेवी को अब तक आ जाना चाहिए था। वे आयी होतीं तो सन्निधान...
"वह तो आगे की बात है।"
"तब तो छोटी रानी ही भाग्यशाली है।"
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'ठीक!" कहकर विट्टिदेव उठ खड़े हुए।
शान्तलदेवी निकट आयीं और पूछा, "कोई अनुताप तो नहीं ?"
"तुम भी विचित्र हो । अपने निर्णय को बदलती ही नहीं।"
418 : पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन
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