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अपने आवास पर बैठकर उन्हें गढ़ने का काम स्थपति करने लगा। मन्दिर का कार्य और भी तत्परता से होने लगा।
होली आयी। वेलापुरी त्योहार के उत्साह से भरी थी। राजमहल में भी त्योहार मनाने के विशेष आयोजन की व्यवस्था की गयी थी। उस दिन दोपहर के भोजन के बाद बिट्टिदेव पट्टमहादेवी के विश्रामागार में आये। उस दिन मन्दिर के कार्य की छुट्टी रही। शान्तलदेवी की पाठशाला में भी अध्यापन स्थगित रहने के कारण छुट्टी रही। इसलिए उनके लिए और कोई निश्चित कार्यक्रम नहीं रहा। आराम करने के उद्देश्य से अभी आकर वह पलंग पर लेटी ही थी कि अचानक महाराज के आने से उन्हें कुछ अटपटा लगा।
उन्होंने तुरन्त खड़े होकर पूछा, "कोई विशेष...?" "हाँ!" कहते हुए बिट्टिदेव पलंग की ओर बढ़े। शान्तलदेवी ने प्रश्नार्थक दृष्टि से उनकी ओर देखा। वह पलंग पर बैठे और बोला, " '' शान्तलदेवी खड़ी ही रहीं, कहा, "क्या आज्ञा है?" "खड़ी क्यों हो, बैठो न?"
शान्तलदेवी बगल के एक आसन पर बैठ गयीं। दोनों थोड़ी देर मौन रहे। शान्तलदेवी प्रतीक्षा की दृष्टि से महाराज की ओर देखती रहीं। उन्हें दूर बैठी देखकर, वह जो कहना चाहते थे उसे कह न सके और अपलक उनकी ओर देखते रहे। थोड़ी देर बाद उन्होंने ही पूछा, "देवि, मेरा यहाँ आना तुमको रुचा नहीं?"
"व्रत-त्योहार सन्तोष के लिए ही आते हैं। ऐसी स्थिति में आपके आगमन से असन्तोष होने का कोई कारण ही नहीं।"
"जब हम आये तो आपने आश्चर्य प्रकट किया। अपनी आत्मीयता जताने को वह पहली रीति भी अब बदल गयी है।" बिट्टिदेव ने कुछ उलाहना देते हुए-से पूछा।
"आत्मीयता का दैहिक निकटता या दूरी से कोई सम्बन्ध नहीं। अब हम इस विषय पर चर्चा करेंगे तो दुनिया हँसेगी। आज्ञा हो। छोटी रानी के साथ समय व्यतीत करना छोड़कर, इस समय यहाँ आना हो तो इसके लिए कोई विशेष कारण होना चाहिए।"
"है, आम क्या है?" "आज होली है। होली का त्योहार है।"
पट्टमहादेवी शान्सला : भाग तीन :: 417