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'यहीं जहाँ मैं काम करता हूँ। आइए !"
दोनों रानियाँ, चट्टलादेवी और रेविमय्या ने उसका अनुगमन किया। सब अन्दर गये। रानियाँ वहाँ रखे आसनों पर बैठ गयीं। स्थपति चित्रों को उस पुलिन्दे से निकालने लगे थे। रेविमय्या द्वार पर और चट्टलदेवी अन्दर दीवार से सटकर खड़े थे । लगभग सम्पूर्ण विजयनारायण की मूर्ति जैसा प्रतीत हो रहा था । रानी लक्ष्मीदेवी ने प्रश्न किया, "यह मूर्ति ?"
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'यही मूल भगवान् की मूर्ति है। विजयनारायण अभिधान पानेवाले चेन्न केशव
की है।"
"कितनी सुन्दर है। ऐसा लगता है कि जैसे अभी उठकर चलने को तत्पर
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'यह तो पाषाण है न?" शान्तलदेवी ने पूछा ।
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हाँ।"
"इसमें जीव भी होता है ?"
"ऐसा कहने पर लोग हँसेंगे न?"
" तो आपको ऐसा कैसे लगा कि मानो यह उठकर चलने को तैयार है ! इसका क्या कारण है?"
"मुझे जो लगा, मैंने कहा। उस तरह क्यों लगा, इसका कारण नहीं पता।" "यह पत्थर है। उसमें प्राण नहीं हैं। फिर भी उसमें प्राण के होने की भावना को उत्पन्न करने की कुशलता शिल्पी की कलाकारिता में है। इसी को हम कला कहते हैं । प्रस्तर को सजीव बनाना हो तो कलाकार अर्थात् शिल्पी के मन को परिशुद्ध होना चाहिए। कृति के निर्माण में तन्मयता की साधना करनी होगी। कलाकार सौन्दर्य 'का उपासक है। उससे वह मानसिक आनन्द प्राप्त करता है, दैहिक सुख नहीं ।" "पट्टमहादेवीजी ने अमूल्य वचन कहे। कलाकार का मन परिशुद्ध होकर जब शिल्प में प्रवृत्त होता है, तब उस कलाकृति में आह्लादकर सौन्दर्य उत्पन्न होता है ।"
" तो शिल्प से शिल्पी के मन को पहचान सकते हैं ?" लक्ष्मीदेवी ने पूछा। "पर्याय से समझ सकते हैं।" कहकर स्थपति ने प्रारूपों के पुलिन्दे को लेकर रानीजी के सामने रखा और पास के एक आसन को लक्ष्मीदेवीजी के पास लगाकर, वहीं बैठ गये तथा एक-एक कर चित्रों को निकालकर, प्रत्येक को विस्तार के साथ समझाने लगे। लक्ष्मीदेवी की उत्सुकता बढ़ती गयी। बीच-बीच में कुछ एक के बारे में वह प्रश्न करने लगी। वास्तव में लक्ष्मीदेवी तन्मय होकर चित्रों को देखती और जिज्ञासा करती जाती। शान्तलदेवी को छोटी रानी में इस तरह की तन्मयता की आशा नहीं थी ।
पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन 427