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इसी बीच में रेविमय्या अन्दर आया । चट्टला ने उसके पास जाकर पूछा, 'क्या है?" उससे सूचना मिली कि सन्निधान ने पट्टमहादेवीजी को तुरन्त बुलाया है। चट्टला ने आवश्यक जानकर इंगित से पट्टमहादेवी को सूचित किया । शान्तलदेवी स्थपति और रानी लक्ष्मीदेवी की एकाग्रता को भंग किये बिना चुपचाप बाहर आय और चहला को यह बताकर कि क्या करना चाहिए, स्वयं रेविमय्या के साथ राजमहल चली गर्यो । जो सेवक बुलाने आया था, उसे वहीं रहने का आदेश दिया।
बहुत देर तक स्थपति रानी लक्ष्मीदेवी को चित्र दिखाते और उनके बारे में विवरण देते रहे और रानी लक्ष्मीदेवी बड़ी एकाग्रता से तल्लीन होकर देखती एवं सुनती रही। मन्दिर का विस्तार, नींव, आकार-प्रकार, ऊँचाई, भित्तियाँ, भित्तिचित्र, उसकी जगत, सुन्दर बनाने के लिए बने देवी-देवताओं के चित्र, पंक्तिबद्ध, रोति से सजाने के ढंग आदि-आदि। यह सब देखकर और विवरण सुनकर रानी लक्ष्मीदेवी महसूस करने लगी कि इतने बड़े विशाल निर्माण एवं ऐसी सुन्दर कलाकृतियों का निर्माण करनेवाले स्थपति कितने बड़े प्राज्ञ होंगे। अब उन भित्तियों पर कतारों में सजाये जानेवाले मूर्तियों के चित्रों को देखना शेष रह गया था । मन्दिर के अन्दर की भित्तियाँ, स्तम्भ, भुवनेश्वरी, प्रांगण, जगत आदि सब देख लिया। इतना सारा महान कार्य आचार्यजी के लिए महाराज ने करवाया है; यह समझकर आचार्यजी के प्रति उसके मन में अपार भक्ति उत्पन्न हुई। उदारमना महाराज से विवाह करने की तृप्ति भी मिली। लक्ष्मीदेवी ने कहा, "महान् है, अद्भुत हैं।"
" इस महान् एवं अद्भुत के निर्माण के लिए प्रोत्साहन की आवश्यकता है। हमारी पट्टमहादेवीजी के सम्मुख उनके बारे में..." कहते हुए स्थपति ने सिर उठाकर उस ओर ताका, जहाँ पट्टमहादेवी विराज रही थीं। किन्तु वहाँ वह आसन सूना पड़ा था । स्थपति का हृदय धक्क से रह गया। बात वहीं रुक गयी।
लक्ष्मीदेवी किसी सुन्दर कल्पनालोक में विचर रही थी अब उसकी भी दृष्टि उधर गयी, देखा कि आसन खाली है; दूर पर चट्टला खड़ी थी तो उसकी ओर देखा और पूछा, "पट्टमहादेवीजी कहाँ ?"
" महासन्निधान ने स्मरण किया था, ने राजमहल चली गयीं।" "कितनी देर हुई ?" स्थपति ने पूछा।
" एक पहर से भी अधिक हो गया होगा । अब तो सूर्यास्त का समय हो आषा
हैं। '
लक्ष्मीदेवी ने कहा, "हमें बताया ही नहीं ?"
" आपकी तन्मयता में बाधा न पड़े, इसलिए ऐसा किया। कला का अनुभव करने के लिए एकान्त और शान्ति की बहुत आवश्यकता होती है। इसलिए उन्होंने
428 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन