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अपने जाने की सूचना तक नहीं दी। सन्निधान और स्थपतिजी तन्मयता के साथ देखने-समझाने में संलग्न थे, इसलिए वैसा किया।" चट्टला बोली।
"एक क्षण के लिए मन इधर-उधर होता तो क्या हो जाता। क्षण भर के लिए देखना रुक जाता। इतना ही न ?" लक्ष्मीदेवी ने कहा ।
"रानीजी मुझे क्षमा करें। एकाग्रता का उत्पन्न होना कठिन है। एक बार यदि एकाग्रता भंग हो जाय तो फिर उसे पाना और अधिक कठिन हो जाता है। अत्युत्तम श्रेणी के कलाकार ही इसे समझी है। देवी ऊँची श्रेणी की कलाकार हैं, इसीलिए यह बात वे बहुत अच्छी तरह समझती हैं। अच्छा, अब जो आज्ञा हो, वहीं करूँगा।" स्थपति ने कहा ।
"उनके चले जाने की सूचना हमें मिलनी चाहिए थी। यह तो ठीक नहीं ? शेष कार्य पर बाद में विचार करेंगे। अब तो तुरन्त राजमहल जाना होगा।" लक्ष्मीदेवी ने कहा ।
चट्टलदेवी, साथ चलने के लिए कोई है ? कोई न हो तो मैं ही साथ चलूँगा ।" कहते हुए स्थपति उठ खड़े हुए।
'सेविका उपस्थित है।" चट्टला ने बताया ।
"हाँ, चलो " दो डग आगे बढ़ाकर लक्ष्मीदेवी स्वपति की ओर देखकर बोली, " स्थपतिजी, आप चिन्तित न होइए। आप जब सब विवरण बताते रहें, तब ऐसा लगा कि मानो किसी दूसरे ही लोक में विचरण कर रहे हैं।" फिर जाकर शिविका में बैठ गयी और राजमहल जा पहुँची ।
उसी रात रानी लक्ष्मीदेवी ने महाराज विट्टिदेव से पूछा, "अचानक बुलवाने का उद्देश्य कोई विशेष राजनीतिक कार्य... 2"+
"ऐसा कोई विशेष कार्य नहीं था। स्थपति के साथ अकेली रहने से रानीजी को स्थपति के स्वभाव का परिचय हो गया होगा न ?"
"तो मैंने उस दिन जो शंका व्यक्त की थी, उसके निवारण का यह मार्ग है
क्या ?"
"हमने पहले तो यह नहीं सोचा था। शंका का बना रहना अच्छा नहीं । इस पर हमने पट्टमहादेवीजी से विचार-विनिमय किया; उस समय जो बातचीत हमारी तुमसे हुई थी, उसे कह दिया। पट्टमहादेवी ने हमें बताया कि इस विषय पर वे स्वयं ध्यान दे लेंगी। जब हमने सुना कि आप दोनों मन्दिर के प्रारूपों को देखने में तल्लीन हैं तो हमने पट्टमहादेवी को खुलवाया, इसलिए कि देखें, ऐसा करने से क्या होता है? इतना ही हमारा उद्देश्य अच्छा है। इसलिए किसी तरह के असमाधान का कोई कारण नहीं। अच्छा, इसे रहने दो, यह बताओ कि स्थपतिजी कैसे व्यक्ति हैं ?"
पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन 429