Book Title: Pattmahadevi Shatala Part 3
Author(s): C K Nagraj Rao
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 423
________________ दूसरे विश्वास के लिए वहाँ स्थान नहीं। यह बात आचार्यजी बहुत अच्छी तरह जानते हैं। इस विषय पर मैंने आधारभूत चर्चा भी आचार्यजी से की है। इससे हम दोनों के मन स्वच्छ हैं। इससे एक-दूसरे को अच्छी तरह समझने में सहायता भी मिली। "इतने बड़े व्यक्ति से चर्चा करना सम्भव हो सकता है ?" "शंका उत्पन्न होती है तो चर्चा करनी ही चाहिए। वास्तविकता को समझ लेना चाहिए। नहीं तो शंका हमारे अन्दर घर कर लेती है और वह अन्दर-ही-अन्दर घुलकर, अन्त में हमें ही निगल जाती है। इसलिए किसी के भी बारे में हमें शंका नहीं करनी चाहिए। यदि शंका हो जाय तो उसके बारे में आमने-सामने चर्चा कर लेनी चाहिए। चाहे बे, जिनसे हम चर्चा करें, कितने ही बड़े क्यों न हों। उनसे चर्चा करके शंका का परिहार कर लेना चाहिए।" "इसके लिए तो बड़ा साहस चाहिए।" "बिना साहस के मनुष्य कुछ भी नहीं साध सकता। संकोच के कारण शंका को अपने मन में आश्रय देना सर्वनाश का कारण है। अनेक बार ऐसी शंका के __ . कारण युद्ध तक हो जाया करते हैं। अब देखो न, हम चालुक्य राजा के माण्डलिक रहे। ससुर ने उन्हीं चालुक्य राजा के लिए अपने प्राणों की आशा छोड़कर युद्ध किया और विजय दिलायी। ऐसे मेरे ससुरजी पर चालुक्यों ने एक साधारण-सी बात पर द्वेष करना प्रारम्भ किया। यह सब केवल शंका के ही कारण।" "उस युद्ध के बारे में सारा किस्सा सन्निधान ने विस्तार के साथ सुनाया है। परन्तु यह नहीं बताया कि द्वेष की भावना क्यों पैदा हो गयी।" "हमारे प्रभु जब सिंहासनारूढ़ हुए तब, कहा जाता है कि, पहले उनकी अनुमति लेनी थी। बस, इसी के फलस्वरूप शत्रुता हो गयी। अब इसी शत्रुता के कारण उधर युद्ध की तैयारियों हो रही हैं, इसकी अभी सूचना मिली है।" "तो फिर युद्ध होगा?" "हाँ, बिल्कुल। और उसी युद्ध में तुम्हें सन्निधान के साथ युद्धरंग में जाना होगा।" "मैं क्या कर सकूँगी? आप या रानी बम्मलदेवी जाएँ तो उत्तम होगा।' "पिरियरसी चन्दलदेवीजी जैसे रणरंग में गयीं न, वैसे ही..." बीच में ही लक्ष्मीदेवी ने कहा, "इसीलिए क्या सब हुआ; न, मैं नहीं जाती, यदि मैं सहयोग न भी दे पायी तो कम-से-कम बाधा तो न पड़े?" "अच्छा, ठीक है। अब तो अवकाश-ही-अवकाश है न?" "है; वास्तव में मेरे लिए अब कोई काम ही नहीं है।" पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: A25

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