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है। हमें भी लगा कि यही होगा। उनके चले जाने पर मेरे पिता ने मुझसे विवाह की बात छेड़ी। कहा कि मुझे रानी बना देंगे। रानी शब्द सुनते ही मेरे भी मन में अभिलाषा हुई। परन्तु अपने-आप से मैंने कहा कि यह सब सम्भव नहीं। उनकी बात का प्रतिवाद मैं सोच ही नहीं सकती थी। उनको छोड़ मेरा कोई दूसरा आत्मीय ही नहीं था। उन्होंने मेरा पालन-पोषण बड़े ही प्रेम से किया है सो मैं यही समझती थी कि वे मेरे सुख-सन्तोष के अतिरिक्त और कुछ क्या सोच सकेंगे। उन्होंने जैसा सोचा था, वही हुआ। इसके लिए आचार्यजी का आशीर्वाद भी प्राप्त हुआ।"
"कुल मिलाकर तुमको तृप्ति मिल गयी, है न?"
"सन्निधान को भी वह तृप्ति मिले, ऐसा भी तुम सोच रही या कर रही
होगी?"
"उनकी इच्छा का मैंने कभी विरोध नहीं किया।"
"विरोध न करना एक मार्ग है। परन्तु स्वेच्छया प्रसन्नतापूर्वक करना दूसरा मार्ग है। तुम सबसे छोटी रानी हो। फिर भी सन्निधान के मन में तुम्हारे प्रति अप्रबुद्धता का भाव उत्पन्न न हो, इसके लिए प्रयल करना होगा। राममहस , ताप के कार्य-कलापों में तुम्हें रुचि लेनी चाहिए।"
"मुझे नहीं पता कि क्या करना चाहिए। कोई बतानेवाला भी नहीं। अभी हाल में एक बार जब सन्निधान असन्तुष्ट हुए तो उन्होंने कह दिया कि रेविमय्या से सीखो। क्या यह सम्भव है? आप ही बताइए।"
"क्यों, सम्भव क्यों नहीं? अच्छी बात छोटे बच्चे से भी सीखी जा सकती है। 'युक्तियुक्तं वचो ग्राह्यं बालादपि शुकादपि' इस उक्ति में यही तो निहित है। ऐसी दशा में सन्निधान के कथन में कोई दोष नहीं है। जो सीखना चाहते हैं, उन्हें अपने स्थान, अवस्था, पद आदि को भूलकर यह समझना चाहिए कि हम केवल छात्र हैं। सिखानेवाले के स्थान-मान की गणना न करके उन्हें गुरु मानना चाहिए। तभी सीखना सम्भव होता है।"
"मन को भी तो मानना चाहिए ?" "जो सीखना चाहेंगे, उन्हें मान लेना चाहिए।"
"हरेक से नहीं, मुझे तो आप ही स्वयं मार्गदर्शन दें। श्रीआचार्यजी ने भी मुझे ऐसी ही आज्ञा दी है।"
"ने विशालहृदय हैं। उन्हें मुझपर विशेष वात्सल्य है।"
"फिर भी आप उनकी शिष्या न बनकर जैनी ही क्यों बनी रहीं?" - "मैं तो जन्म से जैन हूँ। मेरे मन में इस विश्वास ने जड़ें जमा ली हैं। किसी
424 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन