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वेलापुरी के दक्षिण-पूर्व के कोने में राजमहल की अमराई की बगल में यह निर्माण क्यों न हो?' गंगराज ने सूचित किया।
"एक बृहत् मन्दिर के लिए काफी विशाल स्थान है सहो। परन्तु वह ढालू है और वहीं शान्तिवन भी है जहाँ शवदाह आदि भी हुआ करते हैं। वह इतना संगत नहीं।" शान्तलदेवी ने कहा।
"राजमहल के उत्तर-पूर्व के कोने में एक विशाल मैदान ऊँची भूमि पर है। राजमहल की सूची के अनुसार वह किसी वर्ण्य कार्य के लिए काम में नहीं लाया गया है। यहाँ बाँबी न हो तो मेरी दृष्टि में वह सबसे अच्छा स्थान है।" उदयादित्य ने कहा।
"ओह, वह जगह ! जिसे सेना के लिए क्रीडांगण बनाने का एक बार विचार किया था? हमारी सेना की संख्या को राज्य के विस्तार के अनुसार बढ़ाने के कारण वह स्थान आगे चलकर छोटा हो सकता है-यही सोचकर उस विचार को छोड़ दिया था। वहीं जगह न?" शान्तलदेवो ने प्रश्न किया।
"हाँ"--माषण दण्डनाथ ने कहा।
"ऐसा हो तो यह स्थान इस कार्य के लिए ही सुरक्षित रहे।" शान्तलदेवी ने कहा। "हमारा यह निर्णय उस स्थपत्ति को भी ठीक जंचे, जिसे हम नियुक्त करेंगे, तो वहीं मन्दिर का निर्माण हो। नहीं तो अन्य स्थान के विषय में विचार करना होगा। आखिरी निर्णय स्थपति का ही होगा।" शान्तलदेवी ने सूचित किया।
भण्डारी दाममय्या को बुलवाकर पूछा गया कि प्रस्तुत वर्ष में निश्चित खर्च के बाद खजाने में कितना धन बचा रहेगा और उस रकम को वैसे ही सुरक्षित रखे रहने का आदेश दिया गया। स्थपति के निर्णय के बाद और बह जो प्रारूप तैयार करें उसे देखकर खर्च का अन्दाज लगाया जाय; यदि धन की कमी पड़े तो कैसे जुटाया जाय-इसपर विचार करने की बात तय हुई। तुरन्त देश-भर के सभी शिल्पियों को बुलवाने का भी आदेश जारी हुआ। घोषित किया गया कि बृहत् मन्दिर के काम में अपनी कला-कुशलता दिखानेवालों की अपेक्षा है। अच्छा पुरस्कार भी दिया जाएगा। विरुदावली भी दी जाएगी। वैसे ही यह भी आदेश दिया गया कि ग्रामों के लेखपाल और हेग्गडे मन्दिर के कार्य के लिए दान आदि स्वीकार करें।
- इसी अवसर पर प्रधान गंगराज पट्टमहादेवी और महाराज को स्वीकृति पाकर शिथिलता को प्राप्त बसदियों के पुनर्निर्माण के कार्य में लग गये। उनके बेटे एघिराज और बोप्पदेव इस काम में सहायक बने।
खुद शान्तलदेवी मन्त्रिमण्डल के निर्णय के अनुसार निर्णीत स्थान को उदयादित्य के साथ जाकर देख आयीं। जगह प्रशस्त होने पर भी जहाँ-तहाँ
2.0 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन