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उसका पर्यवसान होता है। फिर भी ऐसे लोग विश्वसनीय नहीं, मुझे तो यही लगता है।"
"हमें उससे क्या? वह जाने, उसके आचार्य जानें, उनका धर्म जाने; उनका भगवान् जाने, उनका मन्दिर है, उनका कार्यक्षेत्र वहीं तक सीमित है। इससे बुरा होगा तो उसके धर्म का, उसके मन्दिर का और उसके आचार्य का।"
"ऐसी स्थिति में हमें जो प्रतीत हुआ उसे आचार्यजी को बता देना हमारा कर्नथ्य नहीं?"
"वे स्वयं पूछे तब कहना ठीक होगा। हम ही कहने जाएँ तो वह कान काटना होगा। हम अभी केवल कल्पना को ही लेकर चर्चा कर रही हैं। वास्तव में उसके मन में कोई बुरा उद्देश्य नहीं भी हो सकता है।"
"उसकी वह अति विनय, वह दिखावटी हँसी मुझे तो अच्छी नहीं लगी।"
"केवल इतने ही से हों उपन्दगी को नहीं माप लेना चाहिए। और फिर जब उससे हमारा कोई सरोकार ही नहीं तो इसपर सोचना ही अनावश्यक है।"
"जैसा मुझे लगा, मैंने कह दिया। ऐसी बातों में आपका-सा धैर्य मुझमें नहीं
"ऐसी कुछ बातों में हमें कुछ उदारता बरतनी चाहिए, बम्मलदेवी। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि हमें लापरवाही से बरतना चाहिए।"
"तब तो ठीक है। आप जब से आयी हैं तब से मैं उस स्थपति के बारे में पूछना चाहती थी। उसके यादवपुरी आने और वहाँ से खिसक जाने आदि की सारी बातें महासन्निधान ने मुझे बतायी हैं।"
"वे एक अत्युत्तम कलाकार हैं। सुन्दर कल्पनाएँ उनमें उत्पन्न होकर स्थायी बनती हैं। उन्हें अपने काम पर स्वतन्त्र रूप से छोड़ दें तो उत्तम कृति का निर्माण होता हैं। उनके जीवन में ऐसी कोई घटना घट गयी है जिसकी प्रतिक्रिया उनमें पैदा हुई है। उनकी इच्छा है कि वह बाहर प्रकट न हो। यदि उसे प्रकट करने का कहीं प्रयत्न होता हुआ जान पड़े तो वहाँ से दूर हट जाना ही श्रेष्ठ मार्ग है, यही उनकी भावना शायद होगी। हम शिल्पकार्य की बात छोड़कर दूसरा कोई विषय उनसे छेड़ते नहीं। उनके दायित्व में काम तेजी से चल रहा है। अनुशासन, संयम ये उनके गुण हैं जिनसे मैं अच्छी तरह परिचित हूँ।"
"युद्धक्षेत्र में जाने के बाद प्रारम्भिक दिनों में महासन्निधान उनके बारे में बहुत चिन्तित रहे। सोचते थे कि यदि बीच में छोड़ जाय तो क्या हो। आप राजधानी में ही रहीं और बलिपुर के ख्यात शिल्पी भी, जो आपसे अच्छी तरह परिचित रहे, उनके भी वहाँ रहने से उन्हें विश्वास-सा रहा कि किसी तरह काम
344 :: पट्टमनादेवी शासला : भाग तीन