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"जो द्वेषी होंगे, वे अपना द्वेष प्रकट में नहीं दिखाते. बेटी। पीठ पीछे कान भरते हैं। मुझे कैसे पता होगा? इसीलिए तो मैंने कहा कि वहाँ जाने के बाद सतर्क रहना। तुम्हारी ओर से कोई तुम्हारा विश्वासपात्र अपना व्यक्ति रहे तो सारी बातें पता रहेंगी। तब ऐसे द्वेषी को प्रकट में लोगों के सामने खड़ा कर उसी से कहलवा सकते हैं। मैंने किसका क्या बिगाड़ा है बेटी? मुझे तुम जानती ही हो।"
"आपसे द्वेष करनेवाले दैवद्वेषी ही होंगे। उसका फल के ही भुगतेंगे। आप मातृहृदय रखते हैं, यह बात मुझसे अधिक कोई नहीं जान सकता।"
"इतना ही पर्याप्त है, मेरे बारे में तुम्हारे मन में ऐसी भावना रहेगी तो इतना मेरे लिए पर्याप्त है। सारी दुनिया मुझसे द्वेष करे तो भी मैं उसकी चिन्ता नहीं करूँगा। अब बताओ तो आप लोगों की यात्रा कब होगी?"
"शीघ्र ही प्रस्थान की बात सन्निधान ने कही थी। निर्दिष्ट रूप से यह नहीं बताया कि कब?"
"तुमने पछा नहीं?"
"नहीं! इसमें मेरा पूछना क्या है ? जब चलने को कहेंगे, तब चल देंगे। और क्या करना है?"
"यदि समय मिले तो आचार्यजी के दर्शन कर आशीर्वाद पाकर जाते तो मेरी दृष्टि में ठीक होता, इसलिए कहा।"
"हाँ, मेरा ध्यान उस ओर नहीं गया। सन्निधान से इस पर विचार करूंगी।"
"वही करो। आप लोग वहाँ जाते हो तो मैं भी आचार्यजी का दर्शन पाकर लौट आऊँगा।"
"ठीक है।" रानी लक्ष्मीदेवी ने सम्मति दी। धर्मदर्शी वहाँ से चला गया। लक्ष्मीदेवी ने उसी रात इस सम्बन्ध में महाराज से निवेदन किया।
महाराज ने कहा, "हमने भी यही सोचा है। देवी! तुम्हें भी यह बात सूझी, अच्छा हुआ। यात्रा कल सूर्योदय के एक घटिका बाद प्रारम्भ होगी। सारे सामान के साथ सेना रात को चाँदनी में ही प्रस्थान कर जाएगी।
"हममे साथ?" __ "थोड़े-से घुड़सवार होंगे। पण्डित सोमनाथजी रहेंगे। कुछ नौकर-चाकर भी होंगे।"
''पिताजी भी आचार्य के दर्शन के लिए आना चाहते थे।"
"उन्हें कौन रोकता है ? चाहे जब हो आ सकते हैं। हम लौटनेवाले नहीं, इसलिए वे अपनी इच्छा के अनुसार जब चाहें तब जा सकते हैं।"
लक्ष्मीदेवी के लिए आगे कुछ कहने के लिए शेष न रहा। वास्तव में यह
392 :: पट्टपहादेवी शान्तला ; भाग तीन