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दिया ।
इतने में धर्मदर्शी तिरुवरंगदास को रानी लक्ष्मीदेवी के द्वारा इसका पूर्ण विवरण पता लगा। वह व्यवहारकुशल तो था ही। उसने समझ लिया कि उसे वेलापुरी बुलवाने की इच्छा नहीं है। उसे क्रोध आ गया। फिर भी वह कुछ कर नहीं सकता था। अब उसे इस सम्बन्ध में निर्णय करना था। उसे अब या तो यादवपुरी में धर्मदर्शी बनकर पड़े रहना था था रानी के साथ बेलापुरी जाकर अधिकार खोकर खा-पीकर पड़े रहना था- ये दो ही मार्ग रह गये थे। इन दोनों में से एक को चुनना था। अन्त में वह एक निर्णय पर पहुँचा। अभी अपने असन्तोष को प्रकट न होने देना चाहिए। राजदम्पती सपरिवार अपनी यात्रा करें। बाद में आचार्यजी के द्वारा अपने कार्य को साथ लूँगा। यह सब विचार कर उसने रानी लक्ष्मीदेवी से कहा, "अच्छी बात है, जाने दो बेटी! भगवान् का सान्निध्य चाहनेवाले के लिए यहाँ या वहाँ दोनों बराबर हैं। यहीं रहूँगा । यहाँ का धर्मदर्शित्व आचार्यजी के द्वारा प्राप्त है। इसके लिए आचार्यजी का सम्पूर्ण आशीर्वाद है । राज्याश्रय में उनकी चित्तवृत्ति के अनुसार स्थिति बदल भी जाती है। उसके लिए कोई सौर- निलना नहीं। जिससे राजनीति में आसक्ति हो वे ही अपने को परिस्थिति के अनुसार बना लेते हैं। हमेशा पारलौकिक चिन्तनरत हमजैसों को इन बातों की चिन्ता ही क्यों ? हमें तो केवल तुम्हारा सुख मात्र चाहिए। इस समय एक बात याद रखो। राजमहल में कोई-न-कोई षड्यन्त्र होता ही रहता है। तुम्हें सदा सावधान और सतर्क रहना होगा। किसी पर एकदम विश्वास नहीं करना। साथ ही नौकर-नौकरानियों में से किसी-न-किसी प्रमुख व्यक्ति को अपना बनाये रखना। इससे राजमहल में कहाँ क्या होता है, इन बातों की जानकारी मिलती रहती है, जिससे तुम्हें सतर्क रहने में सहायता मिलेगी।"
"राजमहल में इतना सब गड़बड़ है तो मेरा राजा से विवाह क्यों करवाया ? मुझे यह समझ में नहीं आता है ?"
"देखो बेटी ! तुम वैसे ही बुद्धिमती हो। परिस्थिति के अनुसार अपने को ढाल सकती हो। अनुभव धीरे- धीरे मार्गदर्शन करेगा। मैं किसी-न-किसी तरह वहाँ पहुँच जाऊँगा । इस पर तुम्हें चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं। "
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'मेरी सब बातें सुनकर महाराज ने कहा कि यह तुम्हारी अपनी बातें नहीं । कोई दूसरा तुमसे कहलवा रहा है। जब उन्होंने ऐसा कहा, तब मुझे एक बात सूझी। पिताजी! कोई आपका द्वेषी है, जिसने पहले ही आपके बारे में महाराज से कुछ कह दिया है।"
"हो सकता है। "
"ऐसा आपका द्वेषी कौन है ? आपको किसी के बारे में ऐसी शंका है ?"
पट्टमहादेवी शान्तला भाग तोन 391