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महाराज उठ खड़े हुए और झुककर प्रणाम किया। लक्ष्मीदेवी ने भी प्रणाम किया। राजदम्पती के हाथों में अच्चान ने परात दिया।
'अच्छा, भगवान् का अनुग्रह पोय्सल राजवंश पर सदा रहे।" आचार्यजी ने अभय हस्त से सूचित किया।
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'आज्ञा हो तो हम अथ प्रस्थान करेंगे प्रतिकेपर किसी तरह से वहाँ तक पधारने की कृपा करें।" बिट्टिदेव ने कहा।
"भगवान् की ऐसी इच्छा हो तो उसे कौन रोक सकता है? आने की इच्छा हमारी भी हैं। देखेंगे। " आचार्यजी ने नागिदेवण्णा की ओर देखा और पूछा, "आपको आज ही यादवपुरी लौटना है? आज ठहरकर कल नहीं जा सकेंगे ?"
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"वैसा ही कीजिए मन्त्रीजी, " बिट्टिदेव ने निर्णय सुना दिया। राजदम्पती के रवाना हो जाने के बाद मागिदेवण्णा ने फिर आचार्यजी से भेंट की। आचार्यजी ने नागिदेवण्णा को बैठने के लिए कहा। पास रहे एम्बार से कहा, "एम्बार ! तुम किबाड़ बन्द करके बाहर ही रहो। कोई अन्दर न आए। जब तक हम न बुलावें, तब तक तुमको भी अन्दर प्रवेश नहीं ।"
आचार्यजी का ऐसा आदेश उसने आज तक नहीं सुना था। आश्चर्य से उसने आचार्यजी की ओर देखा ।
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'सुना? हमने जो कहा, एम्बार !" आचार्यजी ने कहा।
'जो आज्ञा !" कहकर वह आज्ञा के अनुसार द्वार बन्द कर सौंकल खींचने के बाद बाहर ही खड़ा रहा।
आचार्यजी ने नागिदेवण्णा से कहा, "हम समझते हैं कि आपको यादवपुरी की सारी बातें ज्ञात हैं।"
"सारी बातों से तात्पर्य ?"
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'राजमहल और महाराज से सम्बन्धित । "
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'सब पता है, यह तो नहीं कह सकता, फिर भी पर्याप्त जानकारी है इतना कह सकता हूँ।”
"हमारे तिरुवरंगदास के बारे में आप जानते हैं ?"
" किस सम्बन्ध में, यह बतावें तो जितना जानता हूँ बता दूँगा।"
" वह लक्ष्मीदेवी का पालक पिता है न?"
"हाँ!"
" तो इसका तात्पर्य हुआ कि वह महाराज का ससुर है।"
“हाँ!”
"ऐसा होने पर भी पहली बार अपनी पुत्री को विदा करने के लिए भी उसे अवसर नहीं मिला तो समझना चाहिए कि दाल में कुछ काला है। उससे कोई
398 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन