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गाजलदेवी भी आसन्दी चली गयी थीं। उन्हें बुलवाने के लिए समय नहीं रहा।
वेलापुरी के पूर्व द्वार में यगची नदी के पार प्रधान गंगराज और अन्य दण्डनायकों ने तथा राजमहल के अधिकारी वर्ग ने महाराज का स्वागत किया। वेदोक्त रीति से स्वागत के बाद राजाशीर्वाद वेदघोष के साथ महाराज राजमहल के महाद्वार पर आये। महाद्वार पर पट्टमहादेवी ने नववधू को हल्दी-कुमकुम और सिन्दूर आदि मांगलिक द्रव्यों से तिलक देकर आरती उतारकर स्वागत किया।
उस दिन अधिकारी वर्ग के साथ नगरप्रमुखों को भोज में निमन्त्रित किया गया था। महाराज के एक और विवाह कर लेने की बात वेलापुरी पहुंच चुकी थी। इसलिए नयी रानी को देखने का कुतूहल सहज ही लोगों में उत्पन्न हो गया था। पट्टमहादेवी ने हो नयी रानी का परिचय अधिकारी वर्ग एवं आमन्त्रित नगरप्रमुखों से कराया।
इन आमन्त्रितों में स्थपति और कुछ प्रमुख शिल्पी भी रहे। महाराज को युद्ध में गये हुए एक साल से भी अधिक समय बीत गया था। इसे महाराज भी जानते थे। उन्होंने स्थति में काफी परिवर्तन देखा था; उन्होंने पूछा, "स्थपतिजी को शायद वेलापुरी की जलवायु अच्छी लगी होगी।"
स्थपति ने कहा, "पट्टमहादेवीजी सब कुछ करा सकती हैं। जैसे मौ बच्चों को अपना बना लेती है, वैसे ही पट्टमहादेवीजी सबको अपना बना लेती हैं।"
"फिर भी पहले के वह स्थपतिजी यहाँ नहीं ठहरे न?" "वह उन्हीं के लिए हानिप्रद है, दूसरों को नहीं।" "सो तो सच है। आचार्यजी ने भी आपके बारे में बहुत कुछ पूछा।" "वे प्रतिष्ठा के अवसर पर पधारेंगे न?" "उनकी आने की इच्छा है, परन्तु आप ही का डर है।" "डर! मेरा?"
"है न? फिर बिना कहे-सुने पहले की तरह चल दें तो? पहले की तरह कर बैठे तो क्या डर नहीं होगा?"
"अब बहुत कुछ बदल गया हूँ। उस समय मेरे मन में जो कलंक की भावना थी. वह अब नहीं। पट्टमहादेवी ने चिकित्सा कर उसका निवारण कर दिया है। इसलिए मैं बिना कहे -सुने चला जाऊँ, यह सम्भव नहीं।"
"आपके मुँह से यह सुनकर हमें अपार सन्तोष हुआ। मन्दिर का काम कब तक पूरा हो जाएगा?"
"वह कार्य समाप्तप्राय है। मुख्य मूर्ति भी अब एक-दो दिनों में पूर्ण हो जाएगी। कुछ अलंकृत मूर्तियों का बनना मात्र शेष है। वे कैसी हों, इसका निर्णय हो जाने पर चार दिनों का काम है। अभी निकट भविष्य में प्रतिष्ठा के लिए योग्य
400 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन