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कभी कलुषित नहीं हुआ है, न होगा। यह शरीर भी कलुषित नहीं होगा, न होना चाहिए। यह सदैव मनसा वाचा पवित्र रहेगा। सन्निधान को भी इस पर अपार विश्वास है। परन्तु लोक का मुँह कैसे सके? कौन रोके? उसका उपाय? जिन 'प्रतिमा भंगियों' को मुझे देना होगा, उनमें कुछ ऐसी भी हो सकती हैं, जिनके लिए मुझे देहाभिमान को भी त्यागना पड़े। वह कल लोगों के लिए मनमानी बातें करने का विषय बन सकता है। मैं दुनिया से डरती नहीं। कलाविदों का जीवन सदा ही द्वन्द्वमय रहा है यह मैं जानती हूँ। एक अपना और दूसरा कृतक और कल्पित। कला के लिए दिखाई जानेवाली, दिखाने की क्रिया। इस बात से सन्निधान अपरिचित नहीं हैं। फिर भी, सभी बातों पर विचार करके सन्निधान स्वीकृति दें तो मनकोत रहेगी। सनिया में कमी, किसी भी स्थिति में मेरे विषय में शंका उत्पन्न नहीं होनी चाहिए। बाहर से दबाव पड़ने पर भी शंका के सामने सन्निधान को सिर न झुकाना पड़े, इसलिए सन्निधान अब जो स्वीकृति देंगे, वही मेरे लिए रक्षा-कवच है।"
__ "हमारी पट्टमहादेवीजी के बारे में शंका प्रकट करनेवाले बच ही नहीं सकेंगे।"
"बिना सोचे-समझे बात करनेवालों पर सन्निधान का आदेश न हो। बुतुगा जैसों के लिए क्षमा भी मिलनी चाहिए। इसलिए मुझे सन्निधान की सीधी स्वीकृति मिलनी अपेक्षित है।"
"देवी! इसके लिए मेरी हार्दिक स्वीकृति है। वह नहीं मिल सकेगी ऐसी शंका ही क्यों हुई, यही मेरी समझ में नहीं आ रहा है।"
"सब राजमहल की रीति-नीति नहीं जानते । नयी रानीजी रानी बनने के पहले. जिस वातावरण में पली-बढ़ी, उसमें उनके बौद्धिक विकास के लिए आवश्यक सहायता नहीं मिली। इसलिए उनको उपलब्ध उस वैदिक वातावरण की पृष्ठभूमि के कारण उनके मुँह से ऐसी कोई बात निकल सकती है। इसलिए..."
"इस विषय में देवी को चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं। रानी को वश में रखना हम जानते हैं। पट्टमहादेवीजी के साथ कैसा व्यवहार चाहिए, यह बात आचार्यजी ने भी रानी से कही है।"
"हाँ, अब मेरे मन का बोझ कुछ हलका हुआ।" "उस समय साथ कोई होगा? या देवी और स्थपति दो ही रहेंगे?"
"स्थपति के विषय में शंका करने की आवश्यकता नहीं। फिर भी, सन्निधान की बात को ध्यान में रखकर साथ रहने के लिए घट्टला से कहूँगी।"
"ठीक है!" बाद के चार छ: दिन पट्टमहादेवीजी का अन्तः पुर ही स्थपत्ति के लिए
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 407