________________
ही दोनों वर्गों के स्वास्थ्य की ओर ध्यान देने के लिए वैद्य आदि की व्यवस्था भी होनी थी। खाद्य सामग्री से भण्डार भर दिये गये थे ।
होली के बाद बाहर से आनेवाले आमन्त्रितों के आने की प्रतीक्षा थी। इसलिए उस समय तक सारी व्यवस्था कर लेने का आदेश राजमहल का था । बाहर से आनेवालों की सुविधा के लिए हाट का भी निर्माण किया जा चुका था । वेलापुरी में नयी चेतना का संचार दिखाई दे रहा था ।
पट्टमहादेवी एवं शिल्पियों को मन्दिर के कार्य को समाप्त करना था । काम बड़ी तत्परता से चल रहा था । मन्दिर के चारों ओर स्तम्भों पर सजाने के लिए जिन मूर्तियों को तैयार करने की बात सोची थी, वे पूरी नहीं हो सकी थीं। एक दिन रात में फिर से अपनी प्रार्थना पट्टमहादेवी के सामने दोहरायी ।
44
'महासन्निधान के समक्ष निवेदन कर विचार-विनिमय के पश्चात् बताऊँगी।" शान्तलादेवी ने कहा। अब समय नहीं था। इसलिए उन्होंने तुरन्त महाराज से एकान्त में विचार-विमर्श किया 1 वस्तु स्थिति का विवरण दिया । " स्थपति ने अपनी कल्पना के वैविध्य को सम्पूर्ण रीति से इस मन्दिर में भर दिया है। इन मूर्तियों की भंगियों के लिए मेरी मदद माँगी है। हमें यादवपुरी बुलाने से पहले ही, उन्होंने प्रार्थना की है। मैंने स्वीकार नहीं किया है। स्थपति की अभिलाषा पूर्ण करने में कोई दोष न होने पर भी, उससे कुविचार फैलने और सन्देह होने की सम्भावना हो सकती है, इसलिए उनकी प्रार्थना को टालती आयी । फिर सन्निधान भी यहाँ उपस्थित नहीं थे। अब मुहूर्त का समय निकट आ रहा है। सभी सात आठ विग्रहों को तैयार कराना है। उनके लिए मुझे, 'प्रतिमा भंगी' दिखानी होगी। सन्निधान यदि उचित समझें और अपनी स्वीकृति प्रदान करें तो मैं अपने अन्तःपुर में ही 'प्रतिमा भंगी' दे दूँ! क्या आज्ञा है ?"
"अभी आचार्यजी तुम्हारी प्रशंसा के पुल बाँध रहे थे; यह कार्य हो जाय तो तुम्हें वे एकदम आकाश में ही टाँक देंगे।"
++
'बड़े सदा बड़े ही होते हैं। उनके मन की इच्छा के अनुरूप उनके सभी विचार भव्यता एवं विशालता से भरे हैं। अब सन्निधान की क्या आज्ञा है ?"
"यह आचार्यजी की सेवा कैंकर्य है। हम दोनों में वचन दिया है। पोय्सल, वचन देने के बाद उससे टलने वाले नहीं हैं। ऐसे में पट्टमहादेवी की इच्छा के लिए विरोध का प्रश्न ही नहीं है।"
" इसका केवल पट्टमहादेवी और महाराज से ही सम्बन्ध नहीं है । सन्निधान इस सम्बन्ध में और गहराई से सोचें, विचार करें। सन्निधान और मुझे दोनों को अपनी वैयक्तिकता के लिए जब कोई अधिकार-बन्धन न रहा, तब हम दो शरीर होने पर भी एक आत्मा मानते रहे। इसके लिए हमने महामातृश्री का आशीर्वाद प्राप्त किया और पति - पत्नी बने। मैंने अपने आपको पूर्णतया समर्पित किया। यह मन
406 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन
7