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उन्होंने कहा, "हमें यह मालूम नहीं, क्यों नहीं आये। आचार्यजी ने हमें प्रतिष्ठा सम्बन्धी सब तैयारियों को विस्तार के साथ समझाकर यहाँ भेजा और हम चले आये।"
"हम जब आचार्यजी के दर्शन करने आये, तब आप लोग यदुगिरि ही में थे न?"
"हाँ!"
"हमारे इधर चले आने के बाद हमारे पिताजी श्रीआचार्यजी के दर्शन के लिए यादवपुरी से आये थे?"
"हाँ, आये थे।"
"शायद दो-तीन दिनों के अन्दर ही आये थे। सन्निधान के साथ सचिव नागिदेवण्णाजी जो आये थे, वे दूसरे दिन यादवपुरी के लिए रवाना हुए, उसके एक दो दिन में ही तिरुवरंगदासजी आये थे। वास्तव में यही सुनने में आया कि आचार्यजी ने ही उन्हें बुलवाया था।"
"मेरे पिताजी ने यह कहा?" "उन्होंने नहीं कहा। श्री साधन ने कहा।"
"लगता है जब आचार्यजी ने स्वयं बुलवाया तो कोई विशेष बात हो रही होगी।'
"जान पड़ता है कि रही हो! क्योंकि वे तुरन्त ही यादवपुरी लौट गये।" "तो आचार्यजी के साथ सम्भवत: पिताजी आएंगे।" "सो बात हमें मालूम नहीं।" "आचार्यजी कब आवेंगे?"
"सो भी हमें मालूम नहीं। उन्होंने कहा–'चाहे हम आवें या न आवें श्री विजयनारायण स्वामी की प्रतिष्ठा का कार्य किसी तरह की विघ्न-बाधा के बिना विधिवत् हो'-कहकर प्रतिष्ठा का सारा विवरण समझाकर आदेश दिया। इसलिए हम ऐसी स्थिति में नहीं हैं कि यह बता सकें कि वे आएँगे या नहीं!"
"नहीं, वे आएँगे ही।
"रातीजी की अभिलाषा के अनुसार आचार्यजी आ जाएँ तो कितना अच्छा हो! इस भव्य मन्दिर को देखकर आनन्दित हो उठेंगे। पट्टमहादेवीजी की निष्ठा का साक्षी है यह मन्दिर!"
"यह मन्दिर स्थपति और शिल्पियों की निष्ठा का साक्षी है। पट्टमहादेवी, दूसरी रानियाँ या मैं क्या कर सकूँगी?'
"हमें क्या पता है। हम तो आचार्यजी के सन्देशों-उपदेशों पर विश्वास
404 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन