________________
"तो भी आपके अमृत-हस्त से प्रतिष्ठा हो, यही हमारी हार्दिक इच्छा है। पट्टमहादेवीजी कायशुद्धि का व्रत-आचरण कर रही हैं।"
"क्या कहा? कायशुद्धि?"
"यह क्या...?"
"मन्दिर की शंकुस्थापना के समय से निरन्तर ब्रह्मचर्य का व्रत पालन कर रही हैं।
आचार्य के चेहरे पर मुस्कुराहट झलक पड़ी। उन्होंने कहा, "उनका यह संकल्प देवमन्दिर के संकेत से भी परे है। वे कायशुद्धि का व्रत पालन करेंगी। उनमें इस तरह का संयम तो है ही, एक महान् त्याग भी निश्चित है। महाराज, आपके अनेक जन्मों के सुकृत का फल ही हैं पट्टमहादेवीजी! उनकी इच्छा के विरुद्ध आप कभी कुछ न करेंगे।"
"उनकी स्वीकृति के बिना हम कुछ भी नहीं करते यह तो जानी-मानी बात
"सो तो ठीक है। तो भी महाराज को एक बात सोचनी चाहिए। महाराज की कोई इच्छा उन्हें पता चल जाय तो उसे पूरी करने के लिए स्वयं की अनिच्छा रहने पर भी अपने को भूलकर वे उसे स्वीकार कर लेती हैं। इसलिए महाराज अपनी इच्छा प्रकट करते समय इस बात का विचार अवश्य करें कि उससे उन्हें कोई आघात या क्लेश तो नहीं? यह सोच-विचार कर ही अपनी आशा-आकांक्षाओं को प्रकट करना उचित है, हमें तो यही लगता है।"
___ "हमने उस दृष्टि से सोचा ही नहीं। फिर भी आचार्यजी का सुझाव हमें मान्य है।" बिट्टिदेव ने कहा।
रानी लक्ष्मीदेवी को कायशुद्धि का अर्थ पूरी तरह स्पष्ट नहीं हुआ। उसने सोचा कि एकान्त के समय इस बारे में जान लेंगे।
थोड़ी देर तक मौन छाया रहा। बाद में आचार्यजी ने अन्दर के द्वार की ओर दृष्टि डाली।
नागिदेवण्णा ने पूछा, "किसी को बुलाना था?"
आचार्यजी ने कहा, "एम्बार को आना था।" नागिदेवण्णा अन्दर गये और जल्दी ही लौटे। उनके पीछे ही एम्बार और अच्चान दोनों आये। एम्बार के हाथ में वस्त्राच्छादित विशाल पात्र था।
"यह राज-दम्पती को आशीर्वादपूर्वक दत्त दीक्षा-वस्त्र है। महाराज और पट्टमहादेवी इसे प्रतिष्ठा-महोत्सव के अवसर पर धारण करें। रानी लक्ष्मोदेवी के लिए भी अलग से है। अच्चान ! परात को महाराज के हाथ में दो।' आचार्य ने कहा।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 397