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"रानी की माँग के दो पक्ष हैं। एक, बेटो होकर पिताजी के बारे में मांग करना, दूसरा व्यवस्था से सम्बद्ध है। जहाँ बेटी हो वहाँ पिता रहे, इसके लिए हमारी स्वीकृति है। इसे कैसे करें--यह सोचेंगे। परन्तु देलापुरी के विजयनारायण भागवान् के मन्दिर के धर्मदर्शित्व के विषय में अकेले निर्णय नहीं ले सकते।"
"आप महासन्निधान हैं। आपकी आज्ञा को न मानने का साहस कौन कर
सकता है?"
"अभी तो साथ रहनेवाली रानी ही कर सकती है।" "यह आप क्या कह रहे हैं?" "हमारा निर्णय निश्चित था। उस पर प्रश्न ही नहीं उठाना चाहिए था।" "तो निगम करने का अधिा किमी दूरसो के हाथ है ?"
"वह अब धीरे-धीरे पता हो जाएगा। अभी यही निर्णय है। रानी चाहें तो उनके साथ ही रहें-यह व्यवस्था की जा सकती है। धर्मदर्शित्व के बारे में निर्णय बेलापुरी जाने के बाद वहां सभी की सलाह के अनुसार ही किया जाएगा।"
"सो आपकी राय है कि मेरे पिताजी में यह योग्यता नहीं है?"
"यह रानी की सन्निधान के बारे में अत्यन्त तात्कालिक रूप से दी गयी राय है। हमारे राज्य का एक अनुशासन है। उसी के अनुसार सब काम चलेंगे। महाराज होकर हम भी उस सामूहिक निर्णय से परे नहीं जा सकते । पोय्सल राजा स्वयंभू नहीं
"तो सन्निधान ने मुझसे जो विवाह किया...''
"हाँ, सो भी सबकी सम्मति लेकर ही; तभी विवाह किया। इसीलिए पट्टमहादेवी और दूसरी रानियाँ यहाँ आयीं।"
"तो उनकी स्वीकृति न मिलती तो मैं अस्वीकृत हो गयी होती, यह न?" "इसमें क्या सन्देह है?" "अर्थात् सन्निधान मुझसे हार्दिक प्रेम नहीं रखते।"
"यों कुछ-का-कुछ अर्थ नहीं करना चाहिए । सन्निधान का प्रेम न हो यह तो प्रश्न ही नहीं। प्रेम करने के बाद ही सलाह मांगी गयी। स्वीकृति मिलने से यह सिद्ध हुआ कि सन्निधान के प्रेम को मान्यता मिली। स्वीकृति न मिलती तो सन्निधान त्याग करने के लिए तैयार रहते।"
"यह तो बड़ी विचित्र बात है! दूसरे मना करें तो अपने प्रेम को त्याग कर देना।"
''अनेकता में एकता, विविधता में लक्ष्य एक को साधना हमारी रीति है। तुमको अभी पट्टमहादेवी का सहवास नहीं मिला। उसके प्राप्त होने पर तुम कुछ और ही तरह बनोगी।"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 389