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"वह कुछ ऊँचा सुनते हैं। कुछ कहें तो वे कुछ और ही सुनते हैं। उन्होंने ही पूछा कि वहाँ धर्मदर्शी बनकर जाएंगे? मैंने कहा, वह या यह, दोनों एक ही भगवान् हैं। मेरे लिए यहाँ भी ठोक है, वहाँ भी ठीक है।"
"अब की रथयात्रा के समय आचार्यजी क्यों नहीं पधारे?"
"यह सब बड़ों की बातें हैं। वे एक तरह से अपनी अन्तःप्रेरणा के अनुसार काम करनेवाले हैं। सम्भवतः उस समय उन्हें कुछ और करने की प्रेरणा हुई होगी, सो हम क्या जानें?...यों तो उन्होंने पधारने का वचन दिया था।"
"सच है। बड़ों की बातें ही ऐसी होती हैं। अपनी यात्रा के बारे में स्वयं रानी ने अपने पिता होने पर भी आपको सूचित नहीं किया। ऐसी स्थति में आपका कहना सही ही लगता है।"
"इसीलिए हम किसी भी बात को लेकर सोचते ही नहीं। मैं और मन्दिर इतनी ही हमारी सीमा है। इस जगत्पिता की सेवा निर्विघ्न होती रहे-यही पर्याप्त है।"
वह माननीय भक्त चले गये। धर्मदर्शी प्रधान पुजारी के पास गये और, "मुझे सचिव से मिलना है, इसलिए यहाँ हो आऊँगा।" कहकर अपना उपरना और दुशाला संभालकर वहाँ से निकल पड़ा।
मन्त्री से मिलने के उद्देश्य से सीधे राजमहल के कार्यालय में जा पहुँचा। वहाँ जाने पर पता लगा कि मन्त्रीजी भी महासन्निधान के साथ गये हैं और आचार्यजी का दर्शन कर आशीर्वाद लेकर महासन्निधान के राजधानी की ओर प्रस्थान करने के आद वे इधर आएंगे।
"इसका अर्थ यह कि मैं यहाँ अवांछित व्यक्ति हूँ। राजा का सुन्दर और युक्ती कन्या को देनेवाला मैं इतना शीघ्र अवांछित व्यक्ति बन गया? इसमें किसी का हस्तक्षेप अवश्य हुआ है। इसका पता लगाना होगा। उस हस्तक्षेपकारी का पता लगाकर उसे दण्ड देना होगा। यदि मैंने यह काम न किया तो मेरा नाम तिरुमलाई का तिरुवरंगदास नहीं।" यही निर्णय करके वह वहाँ से मन्दिर न जाकर सीधे अपने निवास की ओर चला गया।
"कम से-कम लक्ष्मी नौकर द्वारा सूचना दे देती? मन्त्रीजी तो साथ थे ही। मैं उनके साथ आचार्यजी का दर्शन कर वेलापुरी जाने के सम्बन्ध में कुछ भूमिका भी बना देता। परन्तु उसे कौन-सी सन्दिग्धावस्था रही होगी सो तो विदित नहीं। जब मैंने कहा तो उसने 'हाँ' भी की थी। अब इस स्थिति में आगे क्या करना होगा? मन्त्रीजी को लौटने दें। उनसे कोई सूचना मिल जाय, तभी आगे की कुछ योजना बनाएँगे।" यों सोचकर उसने अपने मन को विश्राम दिया।
उधर महाराज सपरिवार सुरक्षित यदुगिरि पहुँचे। पूर्वसूचना होने के कारण
394 :: पट्टपटादेवी शान्तला : भाग तीन