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"तो क्या वे इतनी प्रभावशील हैं ?"
"उसका वर्णन नहीं हो सकता। हमारा जीवन उन्हीं के श्रेष्ठ आचरण के कारण कृतकृत्य है।"
" तो मेरी इच्छा सफल नहीं हुई न ?"
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" देवी, इस विषय में आग्रह न करो। यहाँ बहुमत की मान्यता है । यह रीति सबको सन्तोष दे चुकी है। प्रजा अतृप्त और असन्तुष्ट हो तो राज्य में शान्ति-समाधान के लिए स्थान न रहेगा। न राज्य की प्रगति ही होगी। पोय्सल रानी होकर तुमको भी इसी रास्ते चलना होगा, जिस पर हम चल रहे हैं। राष्ट्र को प्रगति में तुम्हें इसी तरह सहयोग देना होगा।"
" मेरे पिता यदि वेलापुरी में धर्मदर्शी बनकर रहे तो उससे राष्ट्र के लिए आघात पहुँचेगा ? सदा भगवान् की सन्निधि में रहनेवाले राष्ट्र के लिए हानिकारक काम वे क्या कर सकते हैं?"
"देवी, अभी तुममें इन बातों को समझने योग्य प्रौढ़ता नहीं आयी है। तुम्हारे हठ और चर्चा करने की रीति को देखने से ही ज्ञात होता है कि ये बातें तुम नहीं कर रही हो, बल्कि कोई तुम्हारे अन्दर बैठकर कहलवा रहा है।"
"हाँ, मैं मूर्ख हूँ। अपनी कोई बुद्धि नहीं। दूसरों की बातों को ही मानती कहती हूँ। मैं पुजारी की बेटी ही तो ठहरी!" यों कुछ क्षोभ प्रकट करती हुई रानी ने व्यंग्य किया और मुँह फुलाकर बैठी रही।
" इस तरह का व्यंग्य हमें ठीक नहीं लगता। जो परम्परा चली आयी है, उसे छोड़कर हम नहीं चलेंगे। यह बात अब यहीं रुक जानी चाहिए।" महाराज ने कहकर विषय को यहीं विराम लगा दिया।
रानी लक्ष्मीदेवी का दुःख उमड़ आया। उसने करवट बदलकर उसे रोकने की कोशिश की। फिर भी दो-एक सिसकियाँ निकल ही गयीं।
त्रिदेव का मन उधर बेलापुरी की तरफ उड़ चुका था। वह मन-ही-मन सोचने लगा, 'देवी, उस दिन जब तुमने सूचना दी, तब हमने इस विषय में इतना विचार नहीं किया था। आज जब वह प्रत्यक्ष हुआ तो तुम्हारी भविष्यवाणी के बारे में हम चकित हो रहे हैं। इस विवाह के लिए सम्मति न देती तो ऐसी स्थिति ही न आती। यह बात यहीं समाप्त हो जाय तो अच्छा है। यदि फिर दुहरायी जाय तो उससे परिणाम अच्छा न होगा। इसीलिए हम जितना शीघ्र होगा बेलापुरी जाएंगे। यादवपुरी हमें अत्यन्त सुखद रही है, इस जगह पर क्षोभ पैदा न हो...'
दूसरे ही दिन उन्होंने इस भावना से प्रयत्न किया और एकदम सन्निधान का वेलापुरी की ओर जाना भी निश्चित हो गया। वेलापुरी की ओर से किसी सलाह की प्रतीक्षा तक न करके वेलापुरी की यात्रा का विवरण भी वहाँ भेज
390 :: पट्टमहादेवी वन्तला भाग तीन