________________
"आपके भक्तों को ही यहाँ अग्रस्थान देने का आदेश आचार्य ने दिया
हैं?',
"आचार्यजी ने ऐसा आदेश नहीं दिया है परन्तु उनके आदेश का अर्थ तो वही होता है।"
"ऐसा है तो उन्हीं से बात करेंगे।' कहकर शान्तलदेवी उठ खड़ी हुई। शेष लोग भी उठ खड़े हुए।
"अच्छा, धर्मदर्शीजी, अब हम चलेंगे। कल के उत्सव में आचार्यजी आएँगे?" "पता नहीं। उनको स्वीकृति के लिए सचिव नागिदेवण्णाजी से बिनती की
"वे यदि पधारेंगे तो मुझे भी आचार्यजी के दर्शन का सौभाग्य मिलेगा।" धर्मदशी से कहकर वह आगे बढ़ी। बाकी लोगों ने उनका अनमग्ण किया। शादर्शी ने भी अनुसरण किया। मन्दिर के महाद्वार पर झुककर प्रणाम किया। और पूछा, "श्री आचार्यजी के उपचार से जो स्वस्थ हुई वह यही राजकुमारी है?"
"हाँ, उनके इस उपकार को हम कभी भूल नहीं सकेंगे।" ___ "फिर भी सन्निधान अपने को जिनभक्त कहेंगी तो विरोधाभास ही प्रतीत होगा
न?"
"जिन्हें सही जानकारी नहीं हो उनके लिए सब विरोधाभास ही है। इस पर अब चर्चा न करें।" कहकर शान्तलदेवो आगे बढ़ गयीं। सबने उनका अनुगमन किया।
राजमहल में पहुँचने के बाद बम्मलदेवी ने कहा, "वह धर्मदी कुछ बातूनी मालूम पड़ता है।"
"वह अल्पज्ञ है, अन्धविश्वासी है। उसकी बातों को गम्भीरता से लेकर हमें अपने मन को कलुषित करने की आवश्यकता नहीं।" शान्तलदेवी ने कहा।
"वह कहता है कि आचार्यजी ने बताया है, आदेश दिया है...।"
"यह एक रोग है। बेचारे आचार्यजी को इसमें अनेक बातों का पता ही नहीं है। आचार्यजी का भी वहीं अनुभव है, जो हमारा है। अपनी बड़ाई दिखाने के लिए बार-बार आचार्यजी का नाम लेता है। तिरुमले में शायद चामरधारी था; यहाँ धर्मदर्शी के पद को पाने का मार्ग जानकर ही आया होगा। फिर भी कहता है कि आचार्यजी के आदेशानुसार आया।"
"ऐसे लोगों से भलाई की जगह अधिक बुराई के होने की ही सम्भावना
"इससे उसे तृप्ति होगी, बुराई क्या होगी?" "उस नाम को, किस-किसके लिए कैसे-कैसे अवसर पर लेता है, इसपर
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 343