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परिवार की ओर तुरन्त मोड़ना इतना आसान नहीं होता। पाणिग्रहण करनेवाले पतिदेव क्या-क्या आशाएँ लेकर अग्निदेव के समक्ष प्रतिज्ञाएँ करके विवाह कर लेते हैं, उन्हें कहाँ तक पूर्ण करते हैं, प्रतिज्ञा का पालन किस हद तक करते हैंयह सब भविष्य के गर्भ में निहित होता है। फिर भी लड़की किसी तरह को चिन्ता या शंका के लिए मौका न देकर अपने को समर्पण कर देती है। क्या इस आत्मसमर्पण का कोई मूल्य नहीं?"
"है। इसका बहुत बड़ा और महान मूल्य है। कब? अस बहनतिक दृष्टि से पवित्र रहकर उत्तम सन्तान-प्राप्ति में सहयोग दे, तब! क्या यह उसका दायित्व
नहीं?"
"है। कौन कहता है कि नहीं है? यदि व्यवहार पक्षपातपूर्ण हो और पुरुष स्वेच्छाचारी हो जाय तो? सब क्षेत्र उसके द्वारा कलुषित न होगा? मन एक ओर क्रिया दूसरी ही ओर हो तो अच्छा फल मिले कैसे?"
"ऐसा न होकर पुरुष द्वारा अग्नि के समक्ष कृत प्रतिज्ञा का पालन करने पर भी स्त्रीक्षेत्र कलुषित हो जाय तो?"
"दोष है। परन्तु वह कहाँ तक सहयोग देकर उत्तरदायिनी हुई... इस पर विचार कर निर्णय करना होगा। वह अबला है। उसके उस अबलापन का जब दुरुपयोग हो तो इसका कारण पुरुष ही है न? इस सम्बन्ध में हड़बड़ी में निर्णय करना अच्छा नहीं होता।"
"मानता हूँ। हड़बड़ी का कोई निर्णय उचित नहीं होता। परन्तु जब प्रबल प्रमाण मौजूद हो तब?"
"तब स्त्री दण्डनीय अवश्य है। आपके स्व-विषय के विवरण का पक्ष बदलकर किसी और बात की चर्चा की ओर मुड़ गया। अच्छा अब आगे की बात कहिए।"
"आगे दो साल हम नहीं रहे। हमारे साथ ही रहनेवाली वह, जब हम अपने काम पर जाते तो अपने मायके की ओर चल देती। बहुत समय तक हमें इसका पता ही नहीं लगा। एक दिन काम करते-करते मुझे चक्कर आने लगा। मेरे पिताजी मुझे साथ लेकर जब निवास पर पहुंचे तो वह घर पर नहीं थी। पड़ोसियों से पूछने पर पता चला कि वह प्रतिदिन दोपहर के समय मायके जाती है और सन्ध्या को लौटती हैं। मेरे पिताजी गये और बहू को बुला लाये। फिर वे अपने कार्यस्थान की ओर चले। मुझे देख वह डर गयो। उसके सारे काम उल्टे-सीधे होने लगे। मैंने पूछा- 'ऐसा क्यों हो रहा है?' उसने कहा, 'पता नहीं क्यों, मुझे कुछ सूझता नहीं। घबराहट होती है। ससुरजी होते तो अच्छा होता।' मैंने पूछा, 'घबड़ाहट क्यों?' उसने कहा, 'जब आपकी ऐसी दशा है तो घबराहट
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 373