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कि वह स्वर्ग में रह रही है। उसका यौं सोचना गलत भी नहीं था। इस अल्पवय में ऐसा वैभव उसकी कल्पना से बाहर था। इंगितमात्र की देर हो कि सेवकसेविकाएँ तैयार ! मनचाहा भोजन तुरन्त उपस्थित हो जाता। आभूषणों की कमी नहीं कितना भी सजाये । वास्तव में वह सोच भी नहीं पाती थी कि जो मिला है, उसे कैसे भोगना और उपयोग में लाना चाहिए। ऐसे वातावरण में वह यादवपुरी के राजमहल के अन्तःपुर में निवास कर रही है। वह सोचती थी कि जीवन का अक्षुण्ण सुख और सम्पत्ति तथा तृप्ति उसी के भाग्य में हैं। उसके जैसा भाग्यशाली कौन ?
उसका अभिभावक - पालक-पिता तिरुवरंगदास भी उसके पद से लाभ उठाने की धुन में था । यादवपुरी में उसकी प्रतिष्ठा कुछ बढ़ गयी थी। अब अपनी पति पुत्री को देखने के बने वह राजहल में अधिकाधिक आने-जाने लग गया था। यह किसी को मालूम नहीं होता कि वह राजमहल में करता क्या हैं। परन्तु उसकी बातें सुनकर लोग समझने लगे थे कि वह वास्तव में महाराज का आप्त सलाहकार है। उधर वह धीरे-धीरे अपने अधिकार को जमाने और फैलाने में लगा था। कुछ लोगों को उसके अधिकारों का ताप भी अनुभव होने लगा था । एक साधारण धर्मदर्शी का इस तरह अपने अधिकार की सीमा से बाहर अधिकार बढ़ाना. कुछ लोगों के लिए असह्य हो उठा था। छोटी-मोटी शिकायतें मन्त्री नागदेवण्णा तक पहुँची। उन्होंने शिकायत करनेवालों से कहा, "महासन्निधान ने धर्मदर्शी की लड़की से विवाह किया है। हमें सुनकर संयम से बरतना होगा। इस तरह की बातों को बढ़ाते जाएँगे तो वह रानी द्वारा सन्निधान की धारणाएँ तक 'बदलवा सकता है। तब हमें निर्दोष होते हुए भी राजा का कोपभाजन बनना पड़ेगा। अब तो सन्निधान शीघ्र ही राजधानी जानेवाले हैं। तब यह धर्मदर्शी भी वहाँ चला जाएगा। बुद्धिमानी इसी में है कि चुप रहा जाये।"
मन्त्री ही जब यों कहेंगे तो साधारण व्यक्ति क्या कर सकेंगे ? फिर भी शिकायत करनेवालों में से एक गण्यमान व्यक्ति ने कहा, "मन्त्री महोदय को अन्यथा नहीं लेना चाहिए। हमारे राजघरानेवालों ने अब तक कभी व्यक्ति के प्रभाव के वशीभूत होकर कुछ नहीं किया है। कोई भी बात उसके समक्ष प्रस्तुत हो तो उस पर वस्तुनिष्ठ होकर विचार करते आये हैं। इसलिए मेरी राय में सन्निधान को बता देना अच्छा है ।"
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'मुझे जो ठीक लगा, उसे मैंने कहा। मानना न मानना आपके हाथ । सनिधान अब छोटी रानी के यौवन- ऐश्वर्य के उपभोग में निरत हैं। यही कारण है कि पट्टमहादेवी और अन्य रानियाँ यहाँ न रहकर चली गयी हैं। ऐसी स्थिति में विशेष विवरण देने की आवश्यकता नहीं ।"
382 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन