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और पितृकारक रवि का लग्न से अष्टम में रहना, इन दोनों ग्रहों और शनि का षष्ठाष्टक होने के कारण नष्ट ही होगा। गुरु का बीक्षण लग्नाधिपति और लग्न को और होने के कारण यह उत्तम आश्रय को सूचित करता है।"
"तो आपके ज्योतिष के ज्ञान को मान्यता मिलनी ही चाहिए।" 'सन्निधान यह मानें तो वह मेरा सौभाग्य है।" "सो क्या?" "सन्निधान मेरे निर्णय को मान्य कर सकती हैं, इसलिए।"
"परन्तु आप भी हजारों में एक बार भूल कर सकते हैं न? आपके जीवन की इस विचित्र घटना के लिए कारणभूत बह जन्मकुण्डली याद है?"
"है। वहाँ जन्म द्वितीया रविवार स्वाति नक्षत्र है। साथ ही चन्द्र सूर्य और राहु एक साथ हैं। ऐसी स्थिति में उस शिशु की जन्मदात्री का पति उसका कारण नहीं, कोई अन्य पुरुष है, इसमें शंका के लिए पूरा आधार है।"
"सम्पूर्ण जन्म-कुण्डली का विवरण बताइए।" स्थपति ने पूरी जन्मकुण्डली बतायी।
"परन्तु यहाँ गुरु लग्न का वीक्षण करता है न? इसकी ओर आपका ध्यान क्यों नहीं गया?"
स्थपति ने चकित होकर नेता और कुछ सोचकर मनाया "दत णा देव
"नीच गुरु को नीच भंग सजयोग है न स्थपतिजी?" स्थपत्ति मौन रहा।
"अच्छा इस बात को अब यहीं तक छोड़ दीजिए । ईश्वरेच्छा के सामने कोई क्या कर सकेंगे?" आपका यह अभिलषित एकान्त सन्दर्शन बहुत समय तक हुआ। आपका बोझ उतर गया न?"
"अन्दर काँटे की तरह जो चुभ रहा था उसे निकालना चाहा। परन्तु अब काँटे का दूसरा छोर भी उसी तरह तीव्र होकर चुभने लगा है। इस ओर से भी चुभता है, उस ओर से भी।"
"चुभते-चुभते वह स्वयं सहज हो जाएगा। आप कुछ समय तक इस सम्बन्ध में सोचें नहीं। खुले हृदय से आपने सारी बात मुझसे कह दी, यह अच्छा हुआ। अब आगे की बात मुझ पर छोड़ दीजिए।" कहकर शान्तलदेवी उठ खड़ी हुई मानो स्थपति को जाने को सूचना दे रही हों।
वह उठ खड़ा हुआ और बोला, "एक नम्र निवेदन है। अनुग्रह करें।" "क्या?" "मन्दिर के बाहरी सौन्दर्य को बढ़ाने के लिए अन्न जो शिला-मूर्तियाँ बन रही
380 :: पट्टमहादेवो शान्तला : भाग तीन