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"इस जातक के एक बड़ा भाई और एक छोटा भाई होना चाहिए।"
"ठीक है, विवाह?' 'हुआ है।" "कब?" "तारण संवत्सर में पहला विवाह।" "अर्थात्।"
"उस विवाह के बाद ही इस जन्मपत्री का सम्पूर्ण फलयोग प्राप्त है। जन्म स्थान में प्रभावशाली ग्रह होने के कारण इस जातक को श्रेष्ठ पद मिलना ही चाहिए।'
"कुछ और अधिक स्पष्ट कर सकते हैं?'' "वंश-परम्परा से प्राप्त अधिकार अग्रज से अनुज को मिलना चाहिए।" "कब मिलेगा?"
स्थपति ने सोचा, गुना और बताया, "मिल गया होगा न? विवाह के नौ वर्ष के अन्दर मिल चुका होगा न? तो..." स्थपति ने मात वहीं रोक दी।
"क्यों रुके? सन्देह क्या है ?" "मृत्यु का प्रश्न नहीं पूछना चाहिए। इसलिए..." "सच है। आपकी कल्पना सच है।" "कल्पना नहीं। यह कुण्डली बताती है।" "फिर?" "कलत्र पर कलत्र का योग है।" ''तो पहली पत्नी?"
"थोडा ठहरिए।" फिर स्थपति ने गना और बताया, "वे जीवित हैं। परन्तु कटे-कटे से।"
शान्तलदेवी के चेहरे पर एक तरह की हँसी झलकी और लुप्त हो गयी। स्थपति ने इसे देखा और पूछा, "क्यों? मेरी बात सन्निधान को ऊंची नहीं।"
"मैंने तो नहीं कहा। अच्छा, आगे?" स्थपति ने उँगलियों से हिसाब किया। तीन चार-पाँच-छ:...
"क्यों स्थपतिजी, आपकी एक पत्नी रही, उसे छोड़कर चले आये और दूसरों को इतनी पत्नियों क्यों बताते जाते हैं?"
"जन्मपत्री में जो दिखता है उसका हिसाब लगा रहा था। मुझसे क्या होता
"अभी कितनी पत्नियाँ हैं?" ।' दुर्मखि संवत्सर की भी मिलाकर चार पत्नियाँ 111
378 :: पट्टमहादेवी शान्जला : भाग तीन