________________
"तो आपकी राय में अब सन्निधान छोटी रानी की हाथ की कठपुलती...?" "न, न, मैंने यह नहीं कहा।" "कहा तो नहीं, संकेत तो यही है न?"
"मैंने केवल सात्कालिक व्यावहारिक बात बतायी है। इससे अधिक मैं कुछ नहीं कह सकता। सन्निधान यदि किसी के हाथ की कठपुलती हो सकते थे तो केवल पट्टमहादेवी के हाथ की। मगर पट्टमहादेवी का स्वभाव अपने ढंग का है। उनकी उदारदृष्टि सहज सुलभ नहीं। अभी छोटी रानी की अवस्था ही यौवन-सुख की है। यह सोचकर स्वयं ही दूर रखना उन्होंने ठीक समझा। यह अनुभवियों का मार्ग है। इसलिए अभी सन्निधान के एकान्त जीवन में चिन्ता उत्पन्न करना या ऐसी कोई बात कहना हम उचित नहीं मानते।"
"तब हम भी प्रतीक्षा करेंगे। फिर भी आप अपने ढंग से धर्मदर्शी को संकेत कर दें कि वे व्यवहार की अपनी रीति को बदलें।"
"उसमें क्या, बता देंगे। वे भी यहाँ के नहीं हैं। बाहर से आये हैं। हमारे राज्य की रीतिनीति से परिचित नहीं हैं।" यह कह बात वहीं समाप्त कर दी।
इन बातों के बारे में महाराज कुछ नहीं जानते थे। प्रतिदिन धर्मदर्शी मन्दिर में पूजा-अर्चा के बाद चरणामृत और प्रसाद महाराज और रानी को दे आया करता था। विशेष बातचीत के लिए मौका ही नहीं। तीर्थ-प्रसाद दे आना प्रतिदिन का नियम बन गया था। महाराज के पास वह केवल क्षण-भर के लिए रहता, किन्तु रानी के पास कुछ समय बिताता था। गाँव के प्रमुख व्यक्तियों के द्वारा जो सूचना मिली थी, उसके सम्बन्ध में सचिव नागिदेवण्णा ने धर्मदर्शी से एक बार कहकर, उसे पोय्सल राज्य की रीति-नीति और व्यवहार आदि का परिचय दिया भी था। उन्होंने बताया था, "आम लोगों के समक्ष राजमहल से सम्बन्धित बातों को प्रकट नहीं करना चाहिए
और अपने बड़प्पन के प्रदर्शन की दृष्टि से लोगों के सामने ऐसा करना अच्छा नहीं। इसका परिणाम बुरा होगा। अभी तो लोग आपको सनीजी से सम्बन्धित व्यक्ति मानकर चुप हैं, मैंने भी उन लोगों को रोक रखा है। मेरी बात को भी न मानकर, वे आपके बारे में सन्निधान तक न पहुँच जाएँ-इसका ध्यान रखकर लोगों से बरताव करें।" मन्त्री नागिदेवण्णा की यह सलाह धर्मदर्शी के लिए अच्छी नहीं लगी। मगर इसके विरोध करने का भी साहस नहीं हुआ। चुपचाप मान गया और अपने मन में उसने निर्णय कर लिया कि इस बात को रानी से कहूँगा। अवसर पाते ही रानी से कहा, "बेटी, मैंने बड़ी आशा देकर तुमको रानी बनाया।"
"श्री आचार्यजी ने आपको यहाँ बुलवाया, तभी न आपके मन में यह विचार उत्पन्न हुआ?" लक्ष्मीदेवी ने कहा।
"लक्ष्मी! तुम मेरी औरस पुत्री नहीं हो। भगवान् की भेंट हो मेरे लिए तो।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 383