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हैं, उनमें विविधतापूर्ण सजीवता भरने के लिए, सन्निधान कुछ भाव-भंगियों की मुद्राएँ कर दिखाएँ, मैं समिधान के समक्ष एकान्त में चित्रित कर लूँगा।"
"ओह! वह बिट्टिगा की सलाह आपके मस्तिष्क में कुरेद रही हैं। यह कैसे हो सकेगा, स्थपतिजी? एक शिल्पी की इच्छा के अनुसार भाव-भंगिमाओं को एकान्त में पट्टमहादेवी दें और वह प्रकट हो जाये तो उसका परिणाम क्या होगा, इस पर आपने विचार भी किया है?
"सन्निधान अनुग्रह करें तो मन्दिर को एक स्थायी सौन्दर्य प्राप्त होगा। अनुग्रह न कर सकें तो वह राष्ट्र का दुर्भाग्य है । मैं एक अत्यन्त साधारण मनुष्य हूँ। अधिक कह नहीं सकता।"
"राष्ट्र के लिए हर तरह के त्याग को मैं तैयार हूँ। परन्तु इस दुनिया में प्रत्येक की अपनी-अपनी सीमाएँ होती हैं। उस सीमा को लाँघना आसान नहीं। इसलिए शीघ्रता में कोई निर्णय नहीं ले सकती। मैंने जान लिया है कि आप क्या चाहते हैं? किस तरह आपकी अभिलाषा को पूरा करना होगा-इसपर विचार करना पड़ेगा। अब आप अपने काम पर जाइए।" कहकर घण्टी बजायी। स्थपति ने प्रणाम किया। द्वार खुला। चट्टला अन्दर आयी। जाते-जाते स्थपति ने उसे देखा। उसने परदा हटाया। रेविमय्या अन्दर आया।
"बहुत वक्त हो गया. है न रेविमय्या? स्थपति की राम कहानी सुनने में समय का पता ही नहीं चला। उनकी आत्मा अब पक्यावस्था में हैं। इनसं अनेक बस्तु-रूपों का निर्माण होगा। तरह-तरह के सुन्दर रूपों की कल्पना करने के लिए अब क्षेत्र तैयार है। क्योंकि उनका बोझ अब उतरकर हल्का हो गया है। चलो!" रेविमग्या ने कदम आगे बढ़ाया। शान्तलदेवी उसके पीछे चलने लगी। चट्टला भी साथ चल दी।
उधर यादवपुरी में बिट्टिदेव-लक्ष्मीदेवी का दाम्पत्य जीवन अत्यन्त आनन्द में बीत रहा था। लक्ष्मीदेवी ने अपने अब तक के जीवन में किसी भी तरह के वैभव को नहीं देख था। मन्दिर के प्रसाद-चढ़ावे पर ही पली थी। जब कभी कोई धनी भक्त मन्दिर में आता तो उसके वैभव को देखकर कभी ईर्ष्या भी उसमें उत्पन्न होती थी और भोगने की लालसा भी।
__ अब उसको देखकर दूसरों के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हो-ऐसी स्थति उत्पन्न हो गयी थी। इस हद तक उसकी आशाएँ पूर्ण हो गयी थीं, जिसकी वह कभी कल्पना भी नहीं करती थी। रानी की पदवी उसे मिल गयी तो वह समझने लगी
पट्टमहादेवी शान्तला ; भाग तीन :: 381