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अपने इस अन्तरंग के बोझ को उतार लेना चाहता है।"
"आपने परिवार का त्याग जो किया उसके लिए कौन-सा बड़ा कारण
धा?"
"मेरी पत्नी का शीलरहित दुर्व्यवहार!" "इस सम्बन्ध में आपको निश्चित प्रमाण मिला है?" "नहीं तो परिवार को त्याग देने जैसी मुर्खता करता?" "ठीक, मान लेंगे। इससे आपको क्या लाभ हुआ!"
"प्रत्यक्ष देखते रहना हर सहा नहीं था. यदि पकर को मार देता तो मैं कसाई बन जाता। कसाई होने के दोष से मुक्त हुआ।"
"वास्तव में यह ठीक ही किया। पत्नी की हत्या करने जैसा क्रोध क्यों कर हुआ?"
बही कहना चाहता हूँ। एक बात का पहले ही निवेदन करूँगा। मेरा गाँव कौन-सा? मेरी पत्नी कौन? यह ब्यौरा मत पूछे । इतनी कृपा करें।"
"अभी आपकी वह हठीली वृत्ति पूरी तौर से दूर नहीं हुई है। कोई बात नहीं। जितना कहना चाहते हैं, उतना ही कहें। मैं किसी भी व्यक्ति का कोई परिचय नहीं पूलूंगी। ठीक है न?"
"मैं कृतज्ञ हूँ। हमारा घराना प्रसिद्ध शिल्पियों का घराना है। नीतियुक्त साम्प्रदायिक घराना है। हमारी पूर्व पीढ़ियों ने चोल और पाण्ड्य देशों में अपनी कलाकृतियों के लिए बहुत ख्याति पायी थी। मैं बचपन में उन लोगों के साथ उन प्रदेशों में घूम आया हूँ। बचपन से ही कुछ-न-कुछ नवीनता की खोज करना और उस नवीन को रूपित करने का प्रयत्न करना-यही मेरी आकांक्षा रही है। पता नहीं क्यों मेरे अग्रओं को उस पुरानी लीक को छोड़कर मेरे नवीन मार्ग का अनुसरण भला नहीं लगा। इससे मेरे उस उत्साह पर पानी फिर गया। मुझे किसी तरह की स्वतन्त्रता नहीं थी। इस कारण उनकी देखरेख में उन्हीं के आदेश-निर्देश के अनुसार चलता रहा। जहाँ भी मैं गया वहाँ मेरे हस्त-कौशल की प्रशंसा ही हुई। कर्नाटक से चोल देश में जाकर बसे एक पांचाल घराने के साथ मेरी आत्मीयता बढ़ी। इसी के फलस्वरूप उसी घराने की लड़की से मेरा विवाह सम्पन्न हुआ।"
"आपने उस कन्या को देखकर चाह करके ही विवाह किया?"
"मैंने कन्या को विवाह के पहले ही देख लिया था। परन्तु, यह विचार मेरे मन में नहीं था कि मैं उससे विवाह करूँगा। मेरे मन में यह इच्छा ही उत्पन्न नहीं हुई थी।"
"ऐसा क्यों? "क्योंकि तब मेरे मन में विवाह के विषय में कोई विचार ही उत्पन्न नहीं हुआ
पट्टयहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 371