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"अलंकार वैविध्य तथा कलापूर्ण होने पर उसमें सजीवता रूप धारण करती है। अभी केवल उसके लिए आवश्यक उपकरण मात्र तैयार है। उसे सम्पूर्ण बनना हो तो और भी, जैसा पट्टमहादेवीजी ने सुझाया, क्रियात्मक मुर्तियों की आवश्यकता है। इसके लिए उन्हीं से हम सलाह की प्रतीक्षा कर रहे हैं।" स्थपति ने कहा।
"अच्छा, फिर एक बार उस पर विचार करेंगे। समय का पता तक नहीं चला। भोजन का समय भी बीत गया।" शान्तलदेवी ने कहा।
"रेविमय्या अर्ध प्रहर पूर्व ही आ गया था।" बिट्टियण्णा ने बताया।
"मैंने ध्यान ही नहीं दिया।" कहकर शान्सलदेवी ने उसकी ओर देखा और, "चलो रेविमय्या, बच्चे प्रतीक्षा करते होंगे बेचारे।" कहती ई राजमहल की ओर चल दी। उदयादित्य, बिट्टियण्णा और रेविमय्या ने उनका अनुसरण किया।
स्थपति ने जिस एकान्त सन्दर्शन की अभिलाषा की थी, उस सम्बन्ध में शान्तलदेवी ने अन्तःपुर में विचार-विनिमय किया। उस विषय में मुक्त हृदय से सबने अपनाअपना अभिमत बताया। इसके बाद शान्सलदेवी ने स्थपति के बारे में-जब से वह काम में लगा तब से लेकर उसके व्यवहार की रीति और उसमें जो परिवर्तन दिखे उन्हें पहचानने के पश्चात् की सारी स्थितियों की चर्चा सबसे की। उसे सुनने के बाद यह राय बनी कि पट्टमहादेवी एकान्त सन्दर्शन दे सकती हैं। महाराज उपस्थित होते तो उनसे विचार-विमर्श करके सहज ही निर्णय किया जा सकता था परन्तु उनके न रहने से यह चर्चा सबके साथ शान्तलदेवी को इसलिए करनी पड़ी कि उनका कोई कार्य-कलाप पतित या विपरीत मनोभाव से प्रचारित न किया जाय।
एकान्त सन्दर्शन की स्वीकृति के बाद स्थपति को सूचना दे दी गयी। वह समझता था कि वास्तव में उसे यह एकान्त सन्दर्शन नहीं मिल सकेगा। अनुमति की प्राप्ति कर उसकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। उत्साह से भर उठा। इस सन्दर्शन की व्यवस्था मन्त्रणालय में की गयो थी। उसके द्वार के बाहर चट्टलदेवी और रेविमय्या तैनात थे।
इस सन्दर्शन के लिए मन्त्रणालय की आसन-व्यवस्था बदल दी गयी थी। केवल दो ही आसन रख्ने गये थे-एक पट्टमहादेवी के लिए और दूसरा स्थपति के लिए। इस व्यवस्था से मन्त्रणालय एक तरह से शोभाहीन हो गया था। काफी
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 369