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दूर पर एक-दूसरे से आसन रखे गये थे। स्थपत्ति का आसन द्वार के निकट था।
स्थपति के आने के पहले ही पट्टमहादेवी वहाँ उपस्थित थीं। स्थपति ने प्रवेश करते ही झुककर प्रणाम किया। शान्तलदेवी ने आसन की ओर संकेत करके उसे बैठने को कहा। वह बैठ गया। हाथ में चित्रों का पुलिन्दा था, उन्हें गोद में रखकर द्वार की ओर उसने देखा।
'द्वार बन्द है, आप जो भी कहना चाहें कहिए, कोई नहीं सुन सकेमा। इसलिए नि:संकोच कह सकते हैं।" शान्तलदेवी ने कहा।
"सन्निधान की कृपा के लिए मैं कृतज्ञ हूँ।" "यह सब रहने दें। पहले बताएँ बात क्या है ?"
"मेरे हृदय पर भारी बोझ है। मेरे मन में यह धारणा दृढ़ होती आयो कि सन्निधान के समक्ष ही यह बोझ उतर सकता है। मुझे इस बात को आपके समक्ष छेड़ने का साहस भी नहीं होता था। परन्तु चट्टला-मायण का जीवन किस तरह आपके प्रयत्नों से सुन्दर बना–यह सुनकर उनसे बहुत-सी बातों पर चर्चा करने के बाद मुझमें एकान्त सन्दर्शन की आशा-अभिलाषा बढ़ती आयो।"
"तो आपके दाम्पत्य जीवन में भी कोई ऐसी कड़वाहट आयी है?" "कड़वाहट नहीं, वह हलाहल है।" कहते हुए उसके होठ कौंपने लगे। चेहरा रक्ताभ हो उठा। "तो वह इतना भयंकर है?" "निवेदन करूँगा। सन्निधान ही निर्णय करें।"
"पहले जब भी आपका निजी विषय जानने की बात उठती थी तो काम छोड़कर चल देने की बात कहते थे न?"
"अब वह बात व्यर्थ लगती है। अन्तरंग का बोझ जब तक न उतरे तब तक जहाँ भी रहूँ एक-सा है। उस सम्बन्ध में कहना ही लज्जा की आत है, इस तरह के विचार उत्पन्न होने से उस बात को प्रकट कर अपने आपको अपमानित कर लेने की इच्छा नहीं हो रही थी।"
"घही भारी भूल की आपने 1 उसे अन्दर-ही-अन्दर दबाये रखकर सड़ाते रहने से मानसिक शान्ति मिलेगी भी कैसे?"
"सन्निधान का कहना सच है। उसकी जानकारी मुझे नहीं हुई थी। पता नहीं कोई उन्माद छा गया था मेरे मन पर, इसी कारण से मैंने परिवार का त्याग कर दिया। मेरी इच्छा थी कि यह बात किसी को पता न चले। मुझे लगता था कि यदि पता हो जाय तो मैं दूसरों के सामने छोटा बन जाऊँगा। परन्तु अब यहाँ आने पर अनेक बातों की जानकारी मिली। तब यह अनुभव होने लगा कि मैंने अबिवेक किया। इसलिए अब मैं अपनी निजी बातों को सन्निधान से निवेदन कर,
370 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन