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यह निश्चित है। इसलिए उसने कई बातों को आचार्यजी या उनके शिष्यों की जानकारी से दूर ही रखा है। ऐसे में कई बातों को सन्निधान से भी नहीं कहा होगा । वह कन्या शायद उसकी ही लड़की हो। उसने सोचा होगा कि अपनी लड़की कहने पर इच्छा पूर्ण नहीं हो सकती है। उस दिन मन्दिर में उसने जो विवरण दिया वह बाद हैं न बम्मलदेवी! वह एक कूप- मण्डूक के-से स्वभाव का व्यक्ति है। उसकी धारणा है कि अपना धर्म ही धर्म है, दूसरे धर्म.... "वह चाहे उसकी लड़की हो या न हो, उसका प्रभाव बढ़ता जा रहा है, इतना तो निर्विवाद है। उसी दिन मुझे यह शंका उस पर हो गयी थी। मैंने बताया भी था।" अम्मलदेवी ने कहा ।
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" इस तरह का डर तुम्हें हो तो उसके चाल-चलन, गतिविधियों पर ध्यान देकर सन्निधान को सब बताकर उसकी गतिविधियों पर रोक लगा देनी होगी।" पट्टमहादेवी ने कहा ।
यह बात यहीं समाप्त हो गयी। यादवपुरी से गंगराज, पुनोसमय्या, मायण और चट्टला विवाह समारोह के एक सप्ताह के अन्दर ही बेलापुरी चले गये। दूसरे सप्ताह शान्तलदेवी ने भी महाराज को अपने लौट चलने की सूचना दी।
सब मिलकर साथ चलेंगे तो
होग
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'वहाँ मन्दिर का काम क्या हुआ है, कुछ पता नहीं चला। यहाँ आये लगभग एक महीना बीत चला। हम सबको जाकर नयी रानी के स्वागत की तथा विजयोत्सव की तैयारी भी तो करनी हैं। इसके अलावा स्थपति की कार्यपद्धति से तो सन्निधान परिचित हैं ही। मेरा वहाँ रहना उत्तम है। आज्ञा दें तो कृतार्थ होऊँगी। वैसे जाते हुए बाहुबली का भी दर्शन करते जाना है। सन्निधान के साथ तो यह सम्भव नहीं होगा।"
"क्यों ?"
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'नयी रानी सौ फीसदी जन्म से ही वैष्णव हैं। उन्हें बाहुबली में क्या रुचि ? हो भी तो हम नहीं जानतीं। अज्ञान के कारण स्वामी का अपमान नहीं होना चाहिए।" 'तो वह रानी उदार नहीं है ?"
'मैं कैसे कहूँ ? उनके पालन-पोषण करनेवाले तो मत सहिष्णु हैं नहीं। इसलिए उसके मन में बाल्यकाल से कैसी भावना उत्पन्न हुई हैं, उसे जाने बिना उनके साथ जाना अच्छा नहीं, ऐसा मुझे लगता है। "
"उस व्यक्ति पर ऐसी राय हो तो मुझसे पहले ही क्यों नहीं कहा ?" " सन्निधान का उधर अधिक लगाव हो, तो हम कुछ कहें तो उसका मूल्य नहीं होगा। फिर सन्निधान ने भी इस विषय में पहले किसी से विचार भी नहीं किया। यही नहीं बम्मलदेवी, जो सन्निधान के साथ ही रही, उससे भी नहीं कहा। ऐसी दशा में सन्निधान के सामने सिर झुकाने के अलावा कोई दूसरा चारा
पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन : 363
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