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ही नहीं था। अब वह उधर बेलापुरी में निर्मित होनेवाले मन्दिर का धर्मदर्शी बनने की आकांक्षा रखता है। सन्निधान को सूचित किया ही होगा ।!"
बिट्टिदेव धक से रह गये । चकित होकर शान्तलदेवी की ओर देखा । कुछ बोले नहीं।
"मौन को सम्मति समझँ ?"
"तुमसे उसने ऐसा संकेत किया था ?"
"नहीं। जहाँ कहने से काम बनता है, वहीं अपना जाल फैलाते हैं।"
" तो उनके बारे में राय अच्छी नहीं। यह न?"
"हाँ, इसीलिए मैंने अपने मन की बात को सन्निधान के सामने निवेदन किया है। "
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'अब क्या करना होगा ?"
"जहाँ हैं, वहीं रहे। इच्छा न हो तो तिरुमलै वापस जाय।" शान्तलदेवी ने निर्णय ही सुना दिया।
"तो तात्पर्य यह हुआ कि यह सम्बन्ध आरम्भ से ही जटिल हैं। रानी लक्ष्मीदेवी ने इसकी सूचना दी थी। आखिर वे पोषक पिता ही हैं, अन्य कोई सगे सम्बन्धी नहीं हैं। आवें तो आ जायें, क्या आपत्ति हो सकती है।" यों कह
भी दिया।
"विजयोन्माद वीरों को भी भटका डालता है। इसके लिए इससे बढ़कर दूसरा उदाहरण हो क्या सकता है ? सन्निधान मुझे क्षमा करें। यह शीघ्रता आगे चलकर कई कठिनाइयों के लिए कारण होगी, मुझे तो ऐसा ही लगता है। मुझे स्वच्छ हृदय से अपने मन की बात बता देनी चाहिए - यही मेरा धर्म हैं, सो बता दी है। सन्निधान जो भी निर्णय करें, हमें मान्य है। अभी तो हमें लौट चलने की आज्ञा अवश्य दें। " "हम भी साथ ही चलेंगे। बाहुबली के बारे में हम रानी को समझाएँगे।"
" एक छोटे-से भाषण से समझा सकने का विषय नहीं वह । सन्निधान की धमनियों में जैन-संस्कार का ही रक्त बह रहा है। ऐसे सन्निधान ही जब अपना मन बदल सकते हैं, तब व्यावहारिक ज्ञान - शून्य छोटी रानी इसे कैसे समझेंगी ?"
"तो हमारा धर्म परिवर्तन पट्टमहादेवी में एक स्थायी असन्तोष की जड़ जमा चुका है। यही हुआ ?"
"ऐसा हो सकना कितना कठिन है, यही बताने के लिए उदाहरण दिया। क्षोभ से नहीं। अगर मुझे क्षोभ होता तो इस मतान्तर का अवसर ही नहीं आता। अच्छा, अब यह बात छोड़िए। मैं एक बात बताऊँ ?"
44 क्या ?"
"छोटी रानी को आरम्भ के कुछ दिनों में एकान्त सुख मिलना चाहिए। हम
364 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन