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विनिमय हुआ था उसे शान्तलदेवी ने उदयादित्य से कहा।
"तो वह नाट्य-सरस्वती सप्त-स्वरों से युक्त होकर मूर्त हो गयी है?" उदयादित्य ने पूछा।
पास में स्थित स्थपति को जो चात्रु" मेरा स्थान का इा, "इसमें मुझे जितनी जानकारी है उतनी सीमा तक सप्त-स्वरों को सम्लिलित कर मूर्त रूप दिया
"तब तो ठीक ही होना चाहिए।" शान्तलदेवी ने कहा।
"इस विश्वास के लिए मैं कृतज्ञ हूँ। परन्तु मैं यह कहने का साहस नहीं कर सकता कि सब ठीक है। एक बार देख लेने पर सन्निधान को सन्तोष हो तो मुझे तृप्ति मिलेगी।" स्थपति से कहा।
बिट्टियण्णा ने पूछा, "इसमें सप्त स्वरों के आधार षड्ज को कैसे पहचाना?"
"नारदीय शिक्षा में जैसा बताया है, उसी के अनुसार इसमें सप्त-स्वरों को समन्वित किया है। चावुण ! इस मूर्ति में स्वर-स्थानों को स्पन्दित कीजिए।" स्थपति ने कहा। चावुण ने अपने हाथ की छैनी से धीरे से मूर्ति के उस स्थान पर टंकार की।
बिट्टियण्णा बोले, "मयूर!" चावुण ने दूसरे स्थान पर छैनी छुआयी। कहा, "वृषभ।" इसी क्रम से अज, क्रौंच, कोकिल, अश्व, कुंजर, स्वरों को बिट्टियण्णा ने व्यक्त रूप से पहचान लिया। शान्तलदेवी हर्षित हो उठीं। इसे देख स्थपति
और चावुण दोनों को सन्तोष हुआ। उदयादित्य नाट्य-सरस्वती को एकाग्रचित्त से देख रहा था। यह बात समाप्त कर उसने कहा, "इस सरस्वती का चेहरा पट्टमहादेवी के चेहरे से मिलता-जुलता-सा लग रहा है।"
"कुछ-कुछ ऐसी छाया है। कारण कि चावुण ने पहले जो चित्र बनाया था वह मेरे बाल्यकाल का ही था। उसकी छाया इसमें रह गयो। क्योंकि वह चित्र शेष तो ठीक था, परन्तु चेहरा बाल्यकाल का लग रहा था। उसमें प्रौढ़ता लाने को कहा था।" शान्तलदेवी ने कहा।
"इस सम्बन्ध में पट्टमहादेवी की राय?" स्थपति ने धीरे से कहा। "इसे मन्दिर के उत्तर द्वार पर चुनने का सोचा था।" शान्तलदेवी ने कहा। "चारों ओर की मूर्तियाँ कितनी बनी हैं।" बिट्टियण्णा ने पूछा।
"कुछ तैयार हैं। स्वीकृत चित्र अलग-अलग शिल्पियों को दिये गये थे। उन्हें अब देख सकते हैं। परन्तु अभी और चाहिए। उनकी अभी तक कल्पना ही उत्पन्न नहीं हो सकी। कुछ सूझी नहीं, इसलिए सन्निधान की प्रतीक्षा में रहा। अब सन्निधान आ गयी हैं, महासन्निधान के लौटने तक उन्हें तैयार कर युक्त स्थानों में चुन देना होगा। इसके लिए सन्निधान एकान्त दर्शन देने की कृपा करें।" स्थपति ने कहा।
366 :: पट्टपहादेवो शान्तला : भाग तीन