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सामने रहेंगी तो उनके लिए हमारी उपस्थिति अड़चन-सी लगेगी इसलिए राजदम्पती ही यादवपुरी में दो-तीन महीने रहें, इतने में वहाँ मन्दिर का कार्य पूर्ण करके, नयी रानी का स्वागत, विजयोत्सव एवं विजयनारायण की स्थापना-सब एक साथ करवाएंगे। उस समय आचार्यजी को भी बुलाया भेजेंगे।"
"तो कौन-कौन जाएँगे?'' "सब। हम तीनों, उदयादित्यरसजी, बिट्टि-सुचला, हमारे बच्चे और रेविमय्या।" “यहाँ हमारे साथ?" "राजमहल के पण्डित सोमनाथ जी रहेंगे।" "रेविमय्या होगा तो अच्छा रहेगा।"
"न रहना ही अच्छा। क्योंकि उस तिरुवरंगदास को यहाँ स्वतन्त्रता रहेगी। सब सन्निधान उसे अच्छी तरह समझ सकेंगे।"
"सारा निर्णय कर चुकने के बाद बात खोली गयी?" "सन्निधान ने ही ऐसा पाठ पढ़ाया।" "तुम्हारी इच्छा।" योजना के अनुसार दो ही दिनों के भीतर प्रस्थान हुआ।
मार्ग में बाहुबली के सान्निध्य में शान्तलदेवी ने दो दिन बिताये। यहाँ पुजारी अब भी वही था। पट्टमहादेवी ने उसी जिनस्तुति को गाया।
"सन्निधान की आज की स्तुति संवेदना-भरी है। इसके पहले की मुग्धभक्ति, लालित्य से अधिक अनुभवपूर्ण संवेदनायुक्त, तीन अनुकम्या उत्पन्न करने में सशक्त हो गयी है । तब केवल आनन्द होता था। अब अनुकम्पा स्पन्दित हो रही है।" पुजारी ने कहा।
"एक हृदय की संवेदना दूसरे हृदय को स्पर्श करे, वही कला की घरमावस्था है। मेरी कला-साधना की सिद्धि की यह सूत्रता है। कला के द्वारा भी अध्यात्म की साधना कर सकने के लिए यह साक्षी है।"
- इसके पश्चात् विशेष पूजा-अर्चा आदि सम्पन्न हुए। शान्तलदेवी और साथ के लोग शीघ्र ही वेलापुरी पहुँच गये। अब की बार शान्तलदेवी रास्ते में दोर-समुद्र जाकर अपने मासा-पिता को भी बेलापुरी साथ ले आयीं। ___अपनी अनुपस्थिति में भी बहुत कार्य हो चुका था, इसे देखकर शान्तलदेवी को सन्तोष हुआ।
उदयादित्य तो अपनी ही आँखों पर विश्वास न कर सका। एकदम कह उठा, "बड़ा अद्भुत और कल्पनातीत!' फिर शान्तलदेवी पूर्ववत् अपने कार्य में प्रवृत्त हुई। उदयादित्य पूर्ववत् कार्य के निरीक्षण के काम में लग गया।
चावुण ने नाट्य-सरस्वती तैयार कर ली थी। इस सम्बन्ध में जो विचार
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 365