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चलेगा। बाद में जब कभी राजधानी से सूचना मिलती कि मन्दिर निर्माण अच्छी प्रगति पर है, घे खुश होते। उन्होंने समझ लिया था कि आपने स्थपति को मना लिया है।"
"यह लोगों की उदारता है कि लोग हमें प्रेम से देखते हैं। यह हमारा सौभाग्य है। स्थपतिजी भी हम जैसे मानब ही तो हैं। उनका कार्य हमें पसन्द आया। उनसे
और अच्छा काम पा सकने के लिए आवश्यक सुविधाएँ हमने जुटा दी हैं। उनके वैयक्तिक विषय से हम सरोकार नहीं रखते। बड़ी श्रद्धा से काम करते हैं।"
"उनका शील-स्वभाव कैसा है?"
"वे अपने काम से काम रखते हैं। उनकी देखरेख के लिए हमने मंचणा को नियोजित किया है। वह तो उनसे बहुत प्रसन्न है। कहता है ऐसे कोमल-स्वभाव के व्यक्ति को देखा ही नहीं। उसे भी उनको समझने में कुछ समय लगा। पहलेपहल तो उनको कुछ कठोर और शीघ्र कोपी समझ रहा था। अब कहता है कि उनका हृदय बच्चे का-सा निर्मल और कोमल है। अनेक कारणों से किसी के विषय में कोई भावना उत्पन्न हुआ करती है। वह भावना स्थायी नहीं रह सकती। हमारा गुण यदि प्रेम करना हो तो हमें प्रेम मिलता है। यदि हमारा स्वभाव चिड़चिड़ा हो तो हमारे प्रति भी वही बरता जाता है। अपने बारे में ही सोच लो। आप लोगों को अपने निर्णय में शंका होती तो पोयसल राज्य में आश्रय मिलता? आपका मन निर्मल और निष्ठायुक्त है, इसे अपने व्यवहार से प्रमाणित कर दिया। मुले हृदय से व्यवहार किया। उसका फल आपको मिला। यदि मैं ईर्ष्या करती तो आप लोगों का मेरे प्रति द्वेषभाव हो जाना निश्चित बात होती।"
"आपसे द्वेष करनेवाले प्रेम के परम शत्रु होंगे।" बम्मलदेवी ने कहा।
इतने में भोजन के लिए बुलावा आया। शान्तलदेवी ने कहा, "आप लोग भोजन कर आइए। मेरे भोजन का समय तो निकल गया। सूर्यास्त के पहले ही हो जाना चाहिए था। भूल मेरी है। पहाड़ पर चढ़े, वहाँ अपने को ही भूल बैठे। इसी में रह गया।
आपको भूखी रखकर हम खाएं? यह संगत होगा?"
"मेरे लिए मेरा धर्म एक मर्यादा देता है। आपके लिए आपका धर्म अनुकूल है। इसके कारण धर्मयुद्ध न करें। आप जाकर भोजन कर आएँ । मैं आराम करूंगी।" शान्तलदेवी ने कहा। लाचार हो बम्मलदेवी भोजन करने चली गयी। ___शान्तलदेवी कुछ ध्यान करती हुई पलंग पर लेट गयी। पता नहीं कब आँख लग गयी। बम्मलदेवी भोजन समाप्त कर लौटी तो देखा कि शान्तलदेवी नींद में हैं। सेविकाओं से सतर्क रहने के लिए कहकर वह स्वयं भी विश्राम करने के लिए अपने शयनकक्ष में चली गयी।
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 345