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"क्यों रेविषय्या? तुम दिन-ब-दिन दूर होते जा रहे हो?" शान्तलदेवी ने पूछा।
यह सुनते ही उसकी आँखें भर आयीं। शान्तलदेवी ने इसे देखा, कहा कुछ नहीं। थोड़ी देर बाद उसने कहा, "मैंने चाहा कुछ, हो कुछ रहा है। मेरा सपना ही काँच की तरह चूर-चूर हो गया।" वह भावविह्वल हो आया।
"अब क्या हुआ है?"
"जो नहीं होना चाहिए वही हुआ है। पहले तो अम्मलदेवी और राजलदेवी के विवाह के लिए ही सम्मति नहीं देनी चाहिए थी। अब एक और विवाह के लिए भी सम्मति हो तो पट्टमहादेवी का क्या बच रहा? सन्निधान के दूसरे विवाह से आपने संन्यास स्वीकार कर लिया है। उस संन्यास ने आप दोनों को दूर कर दिया है। ऐसा नहीं होना चाहिए था। मेरे विचार से महामातृश्री की इच्छा यही थी कि आप दोनों का दाम्पत्य-जीवन आदर्श बने। मेरे मन की अभिलाषा भी वही थी। इसके लिए भगवान् बाहुबली का आशीर्वाद भी था। परन्तु यह क्या? यह तो विवाहाँ की हाट ही लगती जा रही है। कह सकते है यह क्रम कहाँ जाकर सकेगा? यह आज एक छोटी बात लग सकती है। कल यह राजनीतिक संघर्षों का भी कारण बन सकती है। मेरे मन के किसी कोने में ऐसा लग रहा है कि अब बुरा समय आने ही वाला है। अब भी अगर पट्टमहादेवी चाहें तो यह टल सकता है।"
"रेविमय्या! तुम्हारे सभी विचार मुझे ज्ञात हैं। मुझे यह पता है कि कभी भी तुम्हारा मन बुरी बात सोचता. ही नहीं 1 परन्तु इसमें तुम मेरे बारे में वात्सल्य भाव से सोच रहे हो। तुम्हारे इस भाव के लिए मैं कृतज्ञ हूँ। तुम जैसे निर्मल मन के व्यक्ति के प्रेम से बढ़कर मेरे लिए या मेरे बच्चों के लिए कुछ और नहीं है। तुमसे इतना हो चाहती हूँ। सन्निधान सन्निधान न हुए होते तो बात कुछ और होती। सन्निधान का मुझपर जो प्रेम है वह तुम्हारे मन में जब विचार उत्पन्न हुआ था, तब जैसा था अब भी वैसा ही है। मेरे संन्यास का अर्थ वे भी समझते हैं। राजनीतिक और धार्मिक एकता के लिए न चाहने पर भी कुछ काम करने पड़ते हैं। सन्निधान को भी ऐसे प्रसंग में सन्दिग्धता के वश हो व्यवहार करना पड़ता है। इसलिए सब एक मन होकर उन्हें सहयोग दें। यदुगिरि में क्या हुआ? वह कन्या कौन है?"
"यह बात पट्टमहादेवीजी को पता नहीं?" 'नहीं।"
"तब इसका यही अर्ध है कि सन्निधान ने नहीं बताया। अब मैं बताऊँ तो ठीक होगा?"
"न, वह ठीक नहीं। पट्टमहादेवी होकर मैं सन्निधान की इच्छा के अनुसार
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 357