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बिट्टियण्णा मौन रहा ।
राजलदेवी कभी ऐसी सभाओं में नहीं बोली, वह प्रायः मौन ही रहती थी। इस मौन के लिए वह प्रसिद्ध थी। जब वह बोलना चाहने लगी तो सभा कुतूहल से और आश्चर्य से देखने लगी। उसने कहा, " पुनीसपय्याजी ने जैसा कहा, यह एक कौटुम्बिक प्रश्न हैं। इसे राजनीतिक या धार्मिक दृष्टि से नहीं देखना नाहिए। मैं किसी तरह की ईर्ष्या से प्रेरित होकर यह बात नहीं कर रही हूँ। पट्टमहादेवीजी की उदारता के कारण हमारा पारिवारिक जीवन समरसतापूर्ण है। परन्तु आगे भी यही सामरस्य बना रहेगा या नहीं, इस दृष्टि से सोचकर निर्णय करने का विषय है। सौत सदा बुरे अर्थ में ही प्रसिद्ध हैं. यह लोक में रूढ़ हो गया है। यह सौतिया डाह अब तक राजपरिवार में प्रवेश नहीं कर सका है। इस विवाह से इसका प्रवेश हो तो आगे जहन में पैक सन्निधान को इस दृष्टि से इस पर पुनर्विचार करके निर्णय कना चाहिए। अपनी राय में, इस समय जो समरसता हैं वह अर्थपूर्ण हैं और तृप्तिदायक भी है। इसे इसी तरह रहने देना ही अच्छा है। एक और के प्रवेश से इसे आलोडित करना उचित नहीं है। इससे कोई अनहोनी नहीं भी हो सकती है और हो भी सकती हैं। इसलिए मेरी अपनी राय हैं कि इस विवाह के विचार का त्याग ही कर दें तो अच्छा है। मेरी इस राय का कारण असूया नहीं। क्योंकि मैं थोड़े में ही तृप्त होनेवाली हूँ। मुझे जो मिल जाता है, उसी से मैं तृप्त रहती हूँ । उसी को मैं अपना सौभाग्य समझती हूँ। मैंने सदा से बम्मलदेवी की अनुवर्तिनी होकर जीना सीखा है।"
है।
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" धार्मिक पृष्ठभूमि को लेकर विवाह करने में कोई दोष नहीं है। ऐसा होने से कुछ अनहोनी हो जाए, ऐसा सोचना कल्पना मात्र है। सन्निधान बहुत दयावान और उदार हैं। पट्टमहादेवीजी भी ऐसी ही हैं। अपने धर्म में वे अचल हैं। विभिन्न धर्मश्रद्धावाले दाम्पत्य के फलस्वरूप उन्हें जन्म मिला है। फिर भी धर्म ने उन्हें शान्ति ही दी है, अशान्ति नहीं। तोन जब एक होकर जी सकती हैं तब खार नहीं जी सकेंगी, इसमें शंका क्यों ? इस पाणिग्रहण को श्री आचार्यजी का आशीर्वाद प्राप्त है । राजकुमारी पर उनके आशीर्वाद के परिणाम से आप सब परिचित हैं ही। ऐसी स्थिति में उनके आशीर्वाद से जब यह पाणिग्रहण हो रहा है तो इसमें बुराई कैसी ? यह पोय्सल राज्य आज से भी बढ़कर मतीय विश्वासों पर दृढ़ हो, सभी मत-धर्मों का विश्वास बढ़े. यही आचार्यजी की आकांक्षा है। आचार्य को आश्रय स्थान देने में जो उदारता दिखायी. वही इसके बारे में भी दिखाना चाहिए।" अण्डान ने सूचित किया। आण्डान तो आचार्यजी का भानजा है। आचार्यजी के यदुगिरि में ठहरने के बाद वहाँ से जो तिरुबरंगदास आया था, उसने भी इसी से मिलतीजुलती बात कही।
360 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन