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'बिना किसी धूम-धाम के यह विवाह मन्दिर में देवसान्निध्य में हो । आचार्यजी आएँगे ही ?"
"नहीं, वे नहीं आएँगे। उनके शिष्य आण्डान आये हैं।"
" सन्निधान के मन पर से भार उतर गया न ? अब विश्राम करने में क्या बाधा हैं ?" शान्तलदेवी ने कहा ।
बिट्टिदेव वहीं बैठे रहे ।
"
"और भी कोई बात है ?" शान्तलदेवी ने फिर प्रश्न किया।
"नहीं, कुछ नहीं!" कहकर वह उठ खड़े हुए। रानियाँ भी उठ खड़ी
हुई।
बिट्टिदेव धीरे से दरवाजे की ओर कदम बढ़ाने लगे। द्वार खोलने के लिए म्लदेवी जल्दी-जल्दी द्वार की ओर बढ़ी। बिट्टिदेव ने खड़े-खड़े ही कहा, "देवी, तुम्हारी यदि इच्छा न हो तो यह नहीं होगा।"
"मैंने ऐसा
कहा ?
"वह कौन है, यह बात जानने का उत्साह ही यदि तुममें न हो तो उसके बारे में तुम्हारे मन में कैसी भावना हो सकती है, इसकी हम कल्पना कर सकते हैं।" " विवाह तो सन्निधान करनेवाले हैं। उत्साह उन्हें हो। लेकिन सन्निधान को जो प्रिय है, वही हमें भी है। वह कौन है, इसे जानने का कुतूहल शंका के लिए कारण हो सकता है। इसलिए जानने के लिए कोई शीघ्रता नहीं है। परन्तु सन्निधान ने यह नया चुनाव कैसे किया, यह बात जानने का कुतूहल है। प्रतीक्षा कर उस भाग्यशालिनी को देखने तक संयम से रहेंगे, इसीलिए नहीं पूछा।" शान्तलदेवी ने समाधान दिया ।
"वह कन्या... "
बिट्टिदेव की बात को वहीं रोककर शान्तलदेवी ने कहा, "सन्निधान को भी शीघ्रता करने की आवश्यकता नहीं। पाणिग्रहण के ही अवसर पर प्रथम बार देखने की हमारी इच्छा है। इसलिए उस बारे में कुछ भी न कहें।" शान्तलदेवी ने कहा ।
4.
'जैसी तुम्हारी इच्छा... " कहकर बिट्टिदेव द्वार की ओर चल दिये। बभ्मलदेवी ने द्वार खोला । बिट्टिदेव के चले जाने के बाद उसने द्वार बन्द कर दिया। दोनों पलंग की ओर चल दीं।
बैठती हुई बम्मलदेवी ने शान्तलदेवी से कहा, " आपने इस विवाह के लिए सहमति दे दी यह बहुत आश्चर्य की बात है! "
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'क्यों? ऐसा तुमको क्यों लगा ?"
" आपने अस्वीकार किया होता तो अच्छा होता- ऐसा मुझे लग रहा है, इसलिए । "
352 पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन