________________
"पद्रमहादेवी यदि यह चाहेंगी तो उनसे भी सलाह ले लेंगे। पहले यह पता हो कि पट्टमहादेवी की क्या राय है?"
"इस विषय में पट्टमहादेवी अपनी राय न भी दें तो भी महासन्निधान की इच्छा का विरोध नहीं करेंगी।"
'विरोध नहीं करने का अर्थ यह नहीं कि स्वीकृति है। पट्टमहादेवी को इससे असन्तोष होता हो तो हम..."
'पट्टमहादेवी का जीवन पवित्र प्रेम से परिपूर्णता को प्राप्त कर चुका है। अब तो कोई दैहिक लालसा रही नहीं। ऐसी स्थिति में ईर्ष्या या असन्तोष भला क्यों होगा? सन्निधान की किसी भी इच्छा का विरोध ही नहीं रहता। निर्णय सन्निधान का ही है। रानी बम्मलदेवीजी की राय...?"
"उसकी जरूरत नहीं। मेरी राय की आवश्यकता होती तो सन्निधान मुझसे पहले बातचीत कर सकते थे। मैं साथ रही, तब नो इस विषय स मुझे दूर ही रखा गया तो मेरी राय की आवश्यकता नहीं; यह स्पष्ट है।'' बम्मलदेवी ने कुछ असन्तुष्ट स्वर में ही कह!।
"न, न, सन्निधान के मन में इस तरह की भावना कभी नहीं रहती। ऐसा होता तो राजलदेवी को क्यों बुलाया जाता?" शान्तलदेवी ने कहा।
"यह वे ही जानते हैं। हम तो पट्टमहादेवी के ही अनुयायी हैं।" बम्मलदेवी ने कहा।
"तात्पर्य..." बिट्टिदेव ने पूछा। "शुभस्य शीघ्रम्" शान्तलदेवी ने कहा।
"देवी, आपकी उदारता के हम ऋणी है। किसी विजय के उन्माद में मैंने आचार्यश्री को वचन दे दिया। उसे पालन करने में तुमने यह सहायता की है। अपने उस उन्माद का बोध बाद को हुआ। लेकिन तब समय बीत चुका था।"
"पहले भी तो सन्निधान ने यही किया था न? यह जल्दबाजी ही इस मतान्तर के लिए कारण हुई न? एक विनम्र निवेदन है । सन्निधान चाहे कितने ही विवाह कर लें, मुझे कोई आपत्ति नहीं। परन्तु उन विवाहों के साथ धर्म का गठबन्धन न हो। अब तक पोय्सल राज्य में विविध धर्मों के होते हुए भी उनमें एकता ही रही है। वह एकता इस धर्मान्धता के बहाव में कहीं गड़बड़ा न जाए। हम सबके स्वहित से भी बढ़कर है राष्ट्रहित।" शान्तलदेवी ने कहा।
"क्या करना होगा? इस विषय पर पट्टमहादेवी के क्या विचार हैं?'
''पाणिग्रहण कर लीजिए। उस पर धर्म की मुद्रा लगाकर उसके प्रचार के लिए अवसर न दें।"
"टमका तात्पर्य..."
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 351