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राजलदेवो सज-धजकर ही आयी थी।
"इस तरह शीघ्र ही बुलाने का क्या कारण है ?" राजलदेवी ने पट्टमहादेवी से
"क्यों, उदयादित्यरस ने नहीं बताया?''
"नहीं, कहते हैं कि कुछ भी पता नहीं। सन्निधान का आदेश हुआ, आ गये। ये उस राम के योग्य भाई लक्ष्मण हैं न?" राजलदेवी ने कहा।
"लक्ष्मण हैं सही। परन्तु, राम राम नहीं हैं न?" शान्तलदेवी ने कहा।
राजलदेवी ने आश्चर्य से पट्टमहादेवी की ओर देखा। उसे बड़ा आश्चर्य. हुआ कि पट्टमहादेवी के मुँह से ऐसी बात भी निकल सकती है। एक तरह की सशंक दृष्टि से शान्तला को देखने लगी।
"क्यों, मेरी बात ठीक नहीं जंची? मैंने सन्निधान पर आक्षेप नहीं लगाया। सच्ची बात कही। राम एक पत्नीव्रत रहे न?" शान्तलदेवी ने कहा।
"तो अर्जुन कहिए!" राजलदेवी ने कहा।
"हाँ, यह ठीक है। तुलना बराबर है। अब उन्हें एक चित्रांगदा मिलनेवाली है। इसीलिए यह बुलाया है।" शान्तलदेवी ने कहा।
"पट्टमहादेवा ने स्वीकृति दे दो?'
"उनकी स्वीकृति कभी की मिल गयी है। आपके और बम्मलदेवी के विवाह की स्वीकृति दे चुकने के बाद. प्रभु के मन में जो बात उठती है, उसे अस्वीकार करने के अपने अधिकार को मैंने तिलांजलि दे दी है। अब तो यह बताओ कि तुम क्या कहती हो?" शान्तलदेवी ने पूछा।
"मुझसे हो सकता हो तो मैं मना करती हूँ। परन्तु जब आपने मान लिया है तो मेरी बात का मूल्य ही क्या होगा?" राजलदेवी ने कहा।
"मैंने इसी कारण से स्वीकार कर लिया। परन्तु तुम्हारे स्वातन्त्र्य को मैं छीना। नहीं चाहती।" बम्मलदेवी ने कहा।
"तुम्हारी क्या राय है?'' शान्तलदेवी ने उदयादित्य से पूछा।
"मुझे तो असल में क्या बात है यही मालूम नहीं। मैं क्या कहूँ ?" उदयादित्य बोला।
शान्तलदेवी ने मारी बात बता दी।
"ऐसी स्थिति में किसी को भी राय को कोई मान्यता नहीं मिलेगी। पट्टमहादेवीजी यदि पहले अस्वीकार कर देती तो अच्छा होता। पट्टमहादेवीजी ने ऐसा क्यों किया, यह मुझे समझ में नहीं आ रहा है।" उदयादित्य ने कहा। वह कुछ चिन्तामग्न हो गया।
"सप्पूर्ण पोय्सल गज्य पट्टमहादेवी की राय पर टिका है-ऐसा कहनेवाले
354 :: पट्टमहादेवं शन्तला : भाग तीन