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" उसका बर्ताव इस बात की प्रेरणा देता है कि उस पर अधिक विश्वास करें। पहले महासन्निधान को लौटने दीजिए। बाद में सोचेंगी कि आगे क्या हो ?"
" वही करेंगे। अब विश्राम कर सकती हैं न?"
'पहाड़ियों की ओर हो आयें। मेरे जीवन में वह स्थान बहुत महत्त्व का है। चलोगी न?"
'आप साथ होंगी तो चिन्ता किस बात की ? उसके लिए व्यवस्था कर आऊँगी।'
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"किसी व्यवस्था की आवश्यकता नहीं। हमारे साथ मायण और चट्टला रहेंगे। दो सिपाही ही रहें तो काफी है। लौटते वक्त लक्ष्मीनारायण मन्दिर जाकर लौटेंगे।
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"
" धर्मदर्शी को सूचित कर दूँ?"
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'वैसे ही हो आने की अभिलाषा है।"
" परन्तु पट्टमहादेवी जाएँ और सूचना के बिना ही, तो वहाँ वालों को कुछ बुरा लग सकता है।"
"किसी को कुछ समझने की आवश्यकता नहीं। सूचना भेजने से तो वहाँ तरह-तरह की व्यवस्था होने लगेगी और हमारा जाना औपचारिक हो जाएगा और सहजता नहीं रहकर एक कृत्रिम वातावरण हो जाएगा। भगवान का सान्निध्य ऐसा हो जिसमें किसी तरह की औपचारिकता न रहे, वह सहज रहे। इसलिए पूर्वसूचना नहीं दें।"
"यहाँ मूर्ति स्थापना के बाद यही पहली बार पट्टमहादेवी आ रही हैं। इसलिए औपचारिकता को कृत्रिम होने पर भी सह लेना चाहिए ।"
"ठीक है।"
ही व्यवस्था हुई।
यादवपुरी से लगकर दीवार की तरह खड़ी पहाड़ियों पर चढ़कर ऊपर बने मण्डप में बैठ चारों ओर के प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर शान्तलदेवी का चित्त प्रसन्नता से भर उठा। बीते दिनों में उस स्थान पर उन्होंने आनन्द के जो-जो क्षण भोगे थे, उन सारे सन्निवेशों का विस्तार के साथ वर्णन करने लग गयीं। उनका मन उन पुरानी स्मृतियों में रम गया था। बोली, "वह कैसा समय था, बम्पलदेवी। मेरे भावी जीवन की सार्थकता का एक सुन्दर आरम्भ। यह ऐसे ही अनन्त काल तक सतत आनन्द देता रहेगा, इस तरह का दृढ़ विश्वास पैदा करनेवाला समय था वह स्त्री अपने प्रेम के गर्भ में क्या-क्या आशा-आकांक्षाएँ रखी रहती है, उन्हें केवल स्त्री ही समझ सकती है, है न?"
पट्टमहादेवी शातला भाग तीन : 335