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एक बार आप उसे देखें।"
___ "महासन्निधान के साथ विचार-विनिमय करेंगे। आचार्यजी का दर्शन किये एक साल से अधिक हो गया है। यहाँ, आपके लिए सब सुविधाएं हैं न?"
___ "सचिव नागिदेवण्णाजी की व्यवस्था में किसी तरह की कमी का कोई प्रश्न ही नहीं हैं।"
"मुझे स्मरण नहीं कि मैंने इससे पहले आपको देखा हो।'
''हाँ, मैं आचार्यजी के आदेश के अनुसार तिरुमले से यहाँ आया। हम चाहे कहीं रहें, भगवान् की सेवा में ही रहनेवाले हैं न?"
"गान-सेवा करनेवाली वह कन्या?"
"यहीं है। लक्ष्मी! यहाँ आओ। सन्निधान बुला रही हैं।" उत्साह से धर्मदर्शी ने बुलाया। लक्ष्मी इठलाती. लजाती चंचल दृष्टि से देखती हुई आकर तिरुवरंगदास के पास आ खड़ी हुई।
"मधुर कण्ठ है। अच्छा गाती है। कहाँ सीखा?" "तिरुमलै में" "गुरु कौन हैं?" "वहाँ के क्षारीयो" "क्या-क्या सीखा है?" "भगवान् को अर्पित संगीत-सेवा के लिए जो चाहिए सब सीखा है।" "तो शास्त्रीय ढंग से गाना नहीं सीखा।"
लक्ष्मी टिमटिमाती देखती रही । धर्मदर्शी ने कहा, "इस सबके लिए यहाँ समय ही नहीं था, सुविधा भी नहीं थी।"
"तो यह कन्या आपकी बेटी है?" "हाँ, बेटी की तरह पाला है।" "उसके माँ बाप?"
"उसी को मालूम नहीं। एक दिन तिरुमले के मालिगोपुर (हवा-बुर्ज) के पास रोती हुई खड़ी थी। मैं उसे ले आया और पालन-पोषण किया मैंने। आण्डवन की कृपा से प्राप्त कन्या है-यही सोचता हूँ। उसे मालूम नहीं वह वहाँ आयी कैसे?"
''भगवान् की महिमा है। किसी तरह रक्षण करेगा हो।" "उनके मन में क्या है कौन जाने?" "सो तो सच है।"
"पट्टमहादेवी को प्रणाम करो, लक्ष्मी! सदा उनका आशीर्वाद तुम्हें मिलते रहना चाहिए।" धर्मदर्शी ने कहा।
340 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन