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वहाँ उपस्थित लोगों ने उसकी ओर देखा फिर भी वह मानो उन लोगों की बातें नहीं सुनता हो-खड़ा रहा। फिर इन लोगों की ओर मुड़कर बोला, ''सूर्यास्त का समय हो गया। मन्दिर भी जाना है न? आप लोग कहते रहें और उसे सुनता खुश होता बैठा रहूँ तो उधर जाने का ध्यान ही नहीं रहेगा। सन्निधान आज्ञा दें तो अब यहाँ से चल सकते हैं।" कहकर मायण ने बात ही बदल दी।
सभी मन्दिर जाने के उद्देश्य से उठे और मार्ग में राजमहल में जाकर सेवकों को साथ लेकर वहाँ से मन्दिर जा पहुंचे।
श्री श्री आचार्य के शिष्यवृन्द का तिरुमलै के पेरुमाल वंश का तिरुवरंगदास लक्ष्मीनारायण मन्दिर का धर्मदर्शी था। उसने पट्टमहादेवी, रानी बम्मलदेवी, राजकुमार, राजकुमारी, दण्डनायक बिट्टियण्णा-सुव्बला आदि का पूर्णकुम्भ के साथ स्वागत किया। फिर प्राकार में प्रदक्षिणा करवाकर लक्ष्मीनारायण भगवान् के गर्भगृह के सामने के मण्डप में ले गया। यथाविधि पूजा-अर्चना सम्पन्न हुई।
छोटे नवरंग मण्डप में प्रसाद-वितरण की व्यवस्था की गयी थी। इसलिए धर्मदर्शी ने सबको बहाँ ले जाकर बिठाया। शान्तलदेवी ने कहा, "आप भी बैठिए, धर्मदर्शीजी।"
"ठीक है। बहुत समय से प्रतीक्षा कर रहे थे। आज प्रतीक्षा सफल हुई। यहाँ मूर्ति स्थापना के बाद सन्निधान आयी नहीं थीं। मन्दिर निर्माण, आचार्यजी की आकस्मिक अभिलाषा का फल है। शीघ्र पूरा कर देने का आचार्य ने आदेश दिया था। इसलिए बाहरी सौन्दर्य पर ध्यान नहीं दिया जा सका । पर इससे क्या, भगवान् के रहने का हर स्थान सुन्दर ही होता है। सुना है कि वेलापुरी में सन्निधान के नेतृत्व में भव्यतम मन्दिर बन रहा है, उसे देखने का भाग्य यथाशीघ्र मिले, यही अभिलाषा है। महासन्निधान के विजयी होकर लौटने के इस शुभ अवसर पर वहाँ के भगवान् को विजयनारायण के नाम से अभिहित करें-यही आचार्यजी की अभिलाषा है।"
"उनका अभिमत हमेशा ठीक ही होता है। उनकी वाणी महासन्निधान के लिए वेद है। ऐसी दशा में वही किया जाएगा। श्री श्री आचार्यजी और आप सभी लोग तो मूर्तिप्रतिष्ठा के अवसर पर ही जाएँगे।"
"प्रतिष्ठा का समारम्भ कब हो सकेगा?" धर्मदर्शी ने पूछा।
"महासन्निधान के साथ वहाँ हो आने के बाद एक दिन निश्चित करना होगा। फिर भी वह समय बहुत दूर नहीं।"
"उस दिन की ही प्रतीक्षा करता रहूँगा।" "यदुगिरि में भी मन्दिर निर्माण हो रहा है, उसका कार्य कहाँ तक हुआ है?" "सन्निधान को वहाँ ले जाने की इच्छा है। आचार्यजी की अभिलाषा है कि
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 339