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"मैं कुछ नहीं कह सकती। राजलदेवी को बुला लाने के लिए उदयादित्यरसजी गये हैं।"
"तो मंचि दण्डनाथजी भी आएँगे न?" "सो नहीं पता।"
"क्यों बम्मलदेवी! आज तुम्हारी बात करने की रीति में कुछ असहजता नहीं है क्या?"
"ऐसा क्यों, यह मुझे स्वयं समझ नहीं पड़ रहा है। मैं स्वयं ही परेशान हो रही हूँ। सन्निधान ने भी कुछ कहा नहीं। इतना ही कहा कि आगे स्पष्ट होगा। पट्टमहादेवी के आने तक कुछ भी निश्चय नहीं हो सकेगा।"
"तो पट्टमहादेवी के आने पर जिसका निर्णय होना है, उसके बारे में तुम्हें कुछ पता नहीं ?" __ "कहते तो पता होता? अन्दर-ही-अन्दर रखेंगे तो कैसे पता पड़ेगा?"
"अन्दर-ही-अन्दर रखने के लिए ऐसी क्या गोपनीय या रहस्य की बात होगी? मुझे कुछ सूझता नहीं।"
"मैंने समझा था कि कोई राजकार्य होगा और उसी के लिए आपको बुलवा भेजा है। मगर राजलदेवी को क्यों बुलवाया है? वह तो बेचारी अपने आप में सन्तुष्ट रहती है। कभी किसी विचार में न पड़ती या न किसी में भाग लेती हैं। ऐसी बेचारी को बुलवाने में कोई राजकीय विषय नहीं। शायद कुछ और होगा-यही लगता है। मेरा अनुमान ठीक है या नहीं, कह नहीं सकती। परन्तु मेरा मन कुछ उथलपुथल अवश्य कर रहा है।" __ "शहर की सज-धज देखने पर तो लगा कि यहाँ विजयोत्सव की तैयारी
"आपको जो पत्र भेजा उसमें यह बात थी?" "नहीं, केवल इतना ही था कि तुरन्त चली आयें।" 'विजयोत्सव तो कोई रहस्य की बात नहीं थी, लिखा सकते थे न?"
"हाँ, लिखा सकते थे। नहीं लिखाया। मान लेंगे। फिर भी यह सज-धज विजयोत्सव ही के लिए है न? इसकी व्यवस्था राजमहल की ओर से हुई है
"राजमहल ने कोई आदेश नहीं दिया है।" "आश्चर्य है ! क्या हो सकता है?"
"असली बात महासन्निधान पट्टमहादेवी को शय्या में शायद बता दें।" कहकर बम्मलदेवी ने एक प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा।
शान्तलदेवी ने उस ओर ध्यान नहीं दिया। परन्तु बम्मलदेवी के कहने की रीति
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 333