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सब देखना चाहिए। विजयी प्रभु के दर्शन के लिए सभी मुहूर्त अच्छे हैं।"
"ठीक! आपकी विनती को चट्टला ने मुझे बता दिया है। उसने जो कहा यह लौकिक दृष्टि से ठीक भी है। परन्तु आपकी विनती को स्वीकार करने के लिए अब समय भी नहीं है। क्षमा करें।" कहकर घण्टी बजायी। दरवाजा खुला। स्थपति चला गया।
पट्टमहादेवी शान्तलदेवी, कुँवर बिट्टियपणा, उनकी पत्नी सुव्यला, शान्तलदेवी के बच्चे, बल्लाल, छोटे बिट्टिदेव, विनयादित्य, हरियला, पायण, चट्टला और बल्लू-इतने लोग आवश्यक रक्षक-दल के साथ योजित रीति से यात्रा कर यादवपुरी पहुँचे। बीच में पट्टमहादेवी ने बाहुबली के दर्शन भी किये। यादवपुरी
अध्छी तरह से सज-धज कर सुन्दर लग रही थी। यही समझकर कि यह सब विजयोत्सव की सज-धज है, पट्टमहादेवी ने पुर-प्रवेश किया।
उन्होंने समझा था कि सबसे पहले रेविमय्या दिखाई पड़ेगा। मायण और चट्टला से सन्निधान का आदेश सुनकर रेविमय्या पहले ही यादवपुरी आ चुका था। परन्तु वहीं वहाँ नहीं दिखा। राजमहल के द्वार पर रानी बम्मलदेवी ही पूर्ण राजमर्यादा के साथ उनें स्वागत कर अन्तःपुर में ले आयी।
कुशल प्रश्न हुए। हाथ-मुँह धोकर अल्पाहार भी कर लिया। बाद में रानी बम्मलदेवी ने सेवकों से कहा, "पट्टमहादेवी और अन्य लोग मार्गायास के कारण थके हुए हैं, उनके विश्राम की सारी व्यवस्था कर दें; और ध्यान रखें कि उन्हें कोई कष्ट न हो।" सेवक प्रणाम कर चले गये।
"विश्राम की बात रहने दो। महासन्निधान..." शान्तलदेवी ने पूछा।
"उन्हें आचार्यजी के दर्शन के लिए नागिदेवण्णाजी यदुगिरि ले गये हैं।" बम्मलदेवी ने कहा।
"ओह! इसीलिए रेविमय्या नहीं दिखाई पड़ा।" "जब से वह आया है तब से महासन्निधान के ही साथ हैं।"
"यह इतना आवश्यक बुलावा क्यों? वहाँ का सारा काम स्थपति और दण्डनायक बोप्पिदेव को सौंपकर आना पड़ा।"
"मुझे भी कारण ज्ञात नहीं।" बम्मलदेवी ने कुछ खोजती हुई दृष्टि से चारों ओर देखा।
"क्या देख रही हैं?"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 331