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अर्धवर्तुलाकार सजे आसनों में से एक पर बिट्टियण्णा बैठ गया।
"बैठिए स्थपतिजी।" शान्तलदेवों में कहा । स्थपति बैंक गया।
"विश्राम के दिन में भी विश्राम करने नहीं दिया, इसलिए आप बुरा तो नहीं मानेंगे?" शान्तलदेवी ने पूछा।
"वास्तव में मुझे विश्रान्ति चाहिए ही नहीं। "आपको जैसा लगता वैसे ही हमें भी तो लगना चाहिए।' "कुछ लोगों को विश्राम करने की इच्छा रहती है...।" "सभी को यह इच्छा रहती है।" बीच में शान्तलदेवी बोली।
"ऐसा ही समझेंगे। कुछ लोगों को विश्राम से भी चेतना उत्पन्न होती है। कुछ को इससे शिथिलता आती है। मैं दूसरी कोटि का हूँ। मुझे, यहाँ जबसे आया तब से, मन्दिर की बात छोड़कर दूसरी कोई बात सोचने का अवकाश ही नहीं। वास्तव में कोई पुरानी चेतना फिर जानत हुई-सी लगती है। उसे वैसे ही रहने देना, मुझे अपनी व्यक्तिगत दृष्टि से एवं जिस काम को मैंने हाथ में लिया है. उस दृष्टि से भी अच्छा लगता है।"
"इस तरह से आपका कथन सही है। शंका, भय, असूया, महत्त्वाकांक्षा, रागद्वेष आदि मन में जड़ जमा लें, तो ऐसे लोगों को विश्राम से कोई प्रयोजन नहीं होता। परन्तु इस शरीर की श्रम-सहिष्णुता की भी एक सीमा है। उस सीमा को लाँधकर अधिक परिश्रम करने पर वह शरीर एवं हमारे अस्तित्व को हमारी जानकारी के बिना ही अन्दर-ही-अन्दर कष्ट देता है। इसलिए विश्राम से नयी चेतना न प्राप्त कर सकनेवाले व्यक्ति को आयु कम हो जाती है। वैसा अवसर नहीं आने देना चाहिए।"
__ "अपने से सम्बन्ध न रखनेवाले किसी भी विषय पर सभी विश्लेषण करते हैं। उसमें राग-द्वेष नहीं होना चाहिए, इस बात का उपदेश भी दे सकते हैं। परन्तु वास्तव में जो इन्हें भुगत रहे हैं उनके अन्तरंग में प्रवेश कर वास्तविकता को देखना दूसरों से हो ही नहीं सकता।"
"यह अभिमत की बात हुई।" "मुझे लगता है कि यह सिद्धान्त है।" "कोई ऐसा प्रसंग बताइए जिससे यह मुझे सिद्धान्त प्रतीत हो।" "बता तो सकता हूँ। परन्तु...''
"परन्तु क्या? क्यों रुक गये?" उन्होंने बिट्टियण्णा की ओर देखा । "ओह ! समझ गयी । हमने आपको क्यों बुलवा भेजा, पता है?" शान्तलदेवी ने प्रश्न किया।
"बुलावा आया। इसलिए चला आया। क्यों. यह सन्निधान ने अभी नहीं बताया न?"
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन :: 329