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" महासन्निधान से पत्र आया है। मुझे तुरन्त यादवपुरी जाकर वहाँ उनसे मिलना है। इसलिए मन्दिर के सम्पूर्ण दायित्व का भार अब आप ही पर आ पड़ेगा महासन्निधान के पहुँचने तक इस मन्दिर का कार्य पूर्ण हो जाए तो मन्दिर में मूर्ति की स्थापना शीघ्र करवा सकते हैं। आपकी राय में इस मन्दिर का काम कब तक पूर्ण हो सकता है ?"
"मन्दिर की बाहरी भित्ति पर उभरे स्तम्भों पर छज्जे के नीचे आपकी इच्छा के अनुसार सजनेवाले विविध भंगिमाओं के विग्रहों को छोड़ शेष सभी कार्यों को एक पखवारे के अन्दर समाप्त कर सकते हैं। छेनी का काम समाप्त हो गया है। चुनाना मात्र शेष है। " "मूल विग्रह ?"
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'उसे मैं पूरा कर लूँगा।"
" शिल्प शास्त्र में उक्त प्रमाण से थोड़ा ऊँदा
" कुल ऊँचाई से परस्पर अंगांगों में मेल रहना प्रधान है।"
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" शुक्रनीति सार में प्रतिमा लक्षण बताते समय युग-युग के लिए पृथक्-पृथक् माप दिया है न, क्यों ?"
" तत् तत्कालीन मानव के आकार के अनुसार तत्-तत्कालीन मूर्तियों के आकार होने चाहिए ।"
" इसीलिए कृतयुगीन मूर्तियों दस काल प्रमाण हुई तो त्रेता की नौ, द्वापर की आठ हुई हैं।"
" इस कारण से हमारे कलिकाल में हम जैसे ठिगने आकार को इसलिए सात काल तक का प्रमाण बताया है।"
" इस दृष्टि से बेलगोल के बाहुबलि का क्या काल प्रमाण रहा होगा ?" "कल्पनातीत ।"
'मतलब यह कि शुक्रनीतिसार में उक्त नियम का उल्लंघन करेंगे तो अनुचितनहीं न?"
"कुल काल - प्रमाण में अन्तर करने पर भी बाकी प्रमाण का विभाजन उसी सूत्र अनुसार होना चाहिए। "
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तो कैसा?"
"सो आपका काम है। इस मन्दिर की मूल देव-प्रतिमा कलिकाल के प्रमाण से भी अधिक ऊँची होनी चाहिए ।"
"जो आज्ञा । वह प्रस्तर के ऊपर निर्भर है। सन्निधान का आशय ज्ञात हो गया।
"
अच्छा अब यात्री...
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'कल सुबह अच्छा मुहूर्त है न?"
'बहू को घर लाने के लिए तो सन्निधान नहीं जा रही हैं। ऐसा हो तो वह
330 :: पट्टमहादेवी शान्तला भाग तीन