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से मिलें-यह आदेश है।"
'अच्छा हुआ। मैं जी गया।' मन-ही-मन में कहते हुए मंचणा ने बीरण से कहा, "आओ, अन्दर हैं। वे भी अब चलने को तैयार हो रहे थे। ठीक समय पर आ गये। आओ!"-कहता हुआ मंचणा अन्दर जाने लगा। पत्रवाहक ने उसका अनुगमन किया।
स्थपति को सूचना मिली। उसने मंचणा की ओर देखा। उसने जमीन देखना प्रारम्भ किया।
"मंचणा, तुम्हारी बात सच निकली। अब तो मैं राजमहल जाऊँगा न? मैं स्वयं सन्निधान को बता दूँगा। इसलिए तुम्हें डरने की आवश्यकता अब नहीं।' कहकर स्थपति बीरण की ओर मुड़ा और बोला, "तुम चलो, मैं भी पीछे पीछे आता हूँ।"
"ऐसी कोई बात नहीं। चाहें तो थोड़ी देर विश्राम करके भी आ सकते हैं।" बीरण ने कहा।
"अभी आ जाऊँ तो सन्निधान को कष्ट तो नहीं होगा?"
"अभी तो यही आदेश है कि भोजन और विश्राम के बाद स्थपतिजी यहाँ आएँ।"
"सो ठीक! अभी उनके विश्राम का समय हो तो?" "वे तो केवल रात को आराम करती हैं। क्या आदेश है?" "तुम चलो, मैं अभी आया।" "आपका भोजन-विश्राम सब हो चुका है न?" "हाँ, सब हो चुका है।"
पत्रवाहक बीरण चला गया। कुछ क्षणों के बाद स्थपति भी राजमहल की ओर चल पड़ा। वहाँ का दरबान उसे सीधा मन्त्रणालय की ओर ले गया। वहाँ के द्वारपाल ने द्वार का परदा उठाकर उसे अन्दर जाने दिया और परदा छोड़ दिया। स्थपति जब अन्दर गया तो वहाँ कोई और नहीं था। यह उसके लिए एक नया अनुभव था। वास्तव में वह अब तक इस मन्त्रणालय में आया ही नहीं था। कुछ ऊँचाई पर दो आसन सजे थे। और बाकी कुछ आसन अर्धवर्तुलाकर उन दो आसनों के आमने-सामने जोड़ दिये गये थे। उन ऊँचे आसनों के पीछे की दीवार पर थोड़ी ऊंचाई पर पोय्सल लांछन कुछ उभरकर दिख रहा था। उसके दोनों तरफ दो दीप प्रकाश दे रहे थे। शिल्पी सोचने लगा कि बैलूं या खड़ा ही रहूँ। इतने में घण्टी की आवाज सुन पड़ी।
पोय्सल लांछन के नीचे का द्वार खुला। पट्टमहादेवी और छोटे दण्डनायक बिट्टियण्णा उसके अन्दर से आये। द्वार बन्द हुआ। शान्तलदेवी के बैठने के बाद
328 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग तीन