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पृष्ठभूमि में निवेदन करना आवश्यक है।"
"हो सकता है। परन्तु अपना जन्मस्थान, कुल-गोत्र, जीवन आदि कुछ भी न बतानेवाले आपको,...न, न, आप जैसे पुरुष को अकेले पट्टमहादेवीजी के दर्शन करने देना कैसे हो सकता है, स्थपतिजी? आप अन्यथा न लें, यह बात स्वाभाविक बात
__ "तुम्हारा प्रश्न उचित ही है, चट्टलदेवां। फिर भी मेरी प्रार्थना सुना दो। यदि मैं पमहादेवीजी के विश्वास का पात्र नहीं माना जाऊं या ऐसा कोई डर हो तो वे जो निर्णय करेंगी उसके सामने सर झुकाऊँगा। ठीक है न?" स्थपति ने कहा।
"हमारी पट्टमहादेवीजी पुरुषों को समझने में अग्रगण्य हैं। उन्होंने आप पर विश्वास रखा होगा। परन्तु वे अब जिस स्थान पर हैं, उसके लिए कुछ नियम, कुछ मर्यादाएँ हैं जिनका पालन अनिवार्य होता है।" चट्टलदेवी ने कहा। काफी देर मौन रहा। स्थपति चिन्तामग्न हो बैठा रहा।
कुछ देर बाद मायण और चट्टला ने परस्पर देखा। आँखों-ही-आँखों में संकेत कर निर्णय कर लिया कि चलें। और उठकर दोनों ने हाथ जोड़े और कहा, "आज्ञा हो तो...."
स्थपति ने कहा, "औं, चले? अच्छी बात है। हो आइए. भगवान की इच्छा नहीं। अपना भार उतार लेने का अभी समय नहीं आया, यही लगता है। कोई सूचना है, सन्निधान कब आनेवाले हैं?"
"हम तक अभी कोई सूचना नहीं पहुँची है। हमसे पहले यह सूचना आपको ही मिलेगी।" मायण ने कहा।
"अच्छी बात है।" स्थपति उठने लगा। "आप बैंतिए, हम चलेंगे।" मायण बोला।
"वह सज्जनता नहीं है। अतिथि आएँ, तो उन्हें जाते समय मुख्य मार्ग तक साथ चलकर विदा कर आना चाहिए, यही मनुष्यता है।" स्थपति ने यह कहा, कहकर उनके साथ राह तक आकर विदा दी।
स्थपति अन्दर आया और चहलकदमी करने लगा। मंचणा के आकर भोजन के लिए बुलाने तक यही चलता रहा। मंचणा को लगा कि वह बहुत गहरी चिन्ता में मान हैं, अवसर देख स्थपतिजी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया।
___ "ओह, अच्छा भोजन तैयार है? हाथ-पैर धोकर अभी आया।" कहकर पिछवाड़े की ओर ही आया, रोज की तरह भोजन विधिवत् हुआ। उसके बाद स्थपति ने कहा, "मंचणा. आज रात को मेरे लिए कुछ मत बनाओ। मुझे बेलापुरी से बाहर जाना है। यदि रात को न लौ, तो भी डरने की आवश्यकता नहीं। सुबह ठीक सूर्योदय के समय लौट आऊँगा।"
326 :: पट्टपहादेवी शान्सल्ला : भाग तीन